Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मकर संक्रांति

 

जीवन व्यापक और अनंत है, तथा इस अनंत प्रवाह में जीवन का प्रत्येक दिन, अनवरत बहती धारा है । इसके प्रवाह में सूर्योदय और शाम की अठखेलियाँ हैं ,तो दिन और रात की अँगड़ाइयाँ ; दिन-रोज-सप्ताह-महीना और साल ,जिंदगी की परिक्रमा है । सृष्टि का यह क्रम अनंतकाल से चलता आ रहा है, और अनंतकाल तक चलता रहेगा ; लेकिन जो दिन बीत जाते,उसे कोई याद नहीं करता । परन्तु कुछ दिन ऐसे होते हैं, जिन्हें भुला नहीं सकते, कारण ऐसे दिन अपने भीतर असाधारण घटनाओं को संजोये रहते हैं , जिसके कारण हमारी स्मृति में ये दिन सदा ताजे रहते हैं । चाहे उसका सम्बंध व्यक्ति विशेष या राष्ट्र अथवा हमारे इतिहास से जुड़े हों, कभी भुलाये नहीं जाते,कारण ये दिन विशेष होते हैं । जिन पर्वों का सम्बंध किसी जाति, वर्ग या सम्प्रदाय से रहता है, वे जातीय पर्व कहे जाते हैं । ऐसे तो हिन्दू जाति में 12 महीने में 13 पर्व होते हैं , इनमें से एक है ’मकर संक्रांति’ ; जो पूरे भारतवर्ष में जनवरी के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन को पड़ता है । नेपाल में मकर-संक्रान्ति को माघे संक्रांति और थारु समुदाय में माघी कहा जाता है । हरियाणा और पंजाब में यह पर्व 13 जनवरी को लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है । इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर, अग्नि की पूजा करते हुए, तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है । तिल की बनी हुई गज़क और रेवड़ियाँ, आपस में एक –दूसरे को देते हैं और खुद भी खाते हैं । बहुएँ लोकगीत गाकर लोहड़ी मनाती हैं ।


उत्तर प्रदेश में इस पर्व को दान के रूप में मनाया जाता है । चौदह जनवरी को इलाहाबाद में हर साल माघ- मेला लगता है ; इस महीने को लोग खरमास भी कहते हैं । पुराने-जमाने में इस महीने लोग कोई शुभ कार्य का कार्यक्रम नहीं रखते थे, जैसे शादी, गृहप्रवेश आदि, लेकिन अब समय के साथ लोगों की सोच भी बदल रही है , लोग अंधविश्वास से बाहर निकल रहे हैं । माघ मेला का स्नान मकर संक्रांति से आरम्भ होता है , और शिवरात्रि को समाप्त होता है ।


महाराष्ट्र में इस पर्व के स्नान के पश्चात कपास, तेल व नमक आदि, एक सुहागिन महिला दूसरे सुहागिन महिला को दान करती है तथा तिल और गुड़ भी बाँटती है । मराठी भाषा में, ’’तिल-गुड़ध्या आणि गोड़बोला” अर्थात तिल-गुड़ लो और मीठी-मीठी बातें करो ।


बंगाल में मकर संक्रांति के दिन लो ,गंगा स्नान कर तिल-गुड़ बाँटते हैं । यहाँ विश्व विख्यात गंगा सागर मेला लगता है ; कहते हैं, इसी दिन गंगा भागिरथ के पीछे-पीछे चलती हुई कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में मिली थी । इसलिए यहाँ पूरे देश से श्रद्धालु पहुँचते हैं और सागर में डुबकी लगाकर तिल-गुड़ बाँटते हैं । यह मेला वर्ष में केवल एक दिन लगता है, इसलिए कहा गया है,” सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार ।“


इस प्रकार मकर संक्रांति का पर्व पूरे भारत में मनाया जाता है । इस पर्व का ऐतिहासिक महत्व बहुत है । ऐसी पौराणिक मान्यता है, भगवान भास्कर इसी दिन अपने पुत्र शनि से मिलने उसके घर आये थे । चूँकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है । दूसरी मान्यता यह भी है कि महाभारत काल में भीष्म पितामह , अपना देह त्यागने के लिए इस दिन का चयन किये थे ।


ऐ्से तो इस त्योहार का सम्बंध प्रकृति, ऋतु-परिवर्तन और कृषि से है ; गुड़, तेल और रेवड़ी जीवन का आधार है । मकर संक्रांति का उद्गम बहुत प्राचीन नहीं है । ईशा के एक हजार साल पूर्व ब्राह्मण एवं औपनिषदिक ग्रन्थों में उत्तरायण के छ: मासों का उल्लेख है , जिसमें अयन शब्द आया है जिसका अर्थ होता है--- मार्ग अथवा स्थल । गृह-सूत्रों में ’उद्गयन’,उत्तरायण शब्द का ही द्योतक है । जहाँ स्पष्ट रूप से उत्तरायण आदि कालों में संस्कारों के करने की विधा वर्णित है , किन्तु प्राचीन स्रोत, गृह एवं धर्म सूत्रों में राशियों का उल्लेख नहीं है ।


संक्रांत का अर्थ है, सूर्य का एक राशि से दूसरे राशि में जाना । अत: वह राशि जिसमें सूर्य प्रवेश करता है, जैसा कि देवी पुराण में घोषित है कि जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता, वह सात जन्मों तक निर्धन रहेगा । आजकल पंचांगों में मकर संक्रांति का देवीकरण भी हो गया है, इसे देवी मान लिया गया है । संक्रांति का वाहन, हाथी जैसा किसी पशु को बनाया जाता है और देवी के जो उपवहन होते हैं, उसके वस्त्र काले ,श्वेत,लाल आदि रंगों के होते हैं । हाथ में धनुष या त्रिशूल होता है । नाक लम्बी , हाथ नौ, तथा झुके हुए अधर होते हैं । कहा जाता है , संक्रांति जिस दिशा से होकर जाती है, वहाँ के लोग सुखी-सम्पन्न होते हैं और जिस दिशा में जाती है, वे लोग दुखी और निर्धन होते हैं ।


कुछ लोगों की धारणा तो यह भी है, जैसा कि विष्णु सूत्र में आया है, आदित्य अर्थात सूर्य के संक्रमण पर, अर्थात जब सूर्य एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश करता है ,ऐसे नक्षत्र में श्राद्ध करना सार्थक होता है । इन दिनों में श्राद्ध से पितरों को अक्षय संतोष प्राप्त होता है ; लेकिन शूलापाणि के अनुसार केवल श्राद्ध नहीं, संक्रांति में पिंडदान भी होना चाहिए । इस प्रकार नाना शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग मत हैं । मान्यता तो यह भी है, इस दिन देह त्यागने वाले जनम-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं । इसलिए भीष्म पितामह ,अर्जुन द्वारा रचित वाण-शय्या पर पड़े उत्तरायण अवधि की प्रतीक्षा करते रहे, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश किया,तब उन्होंने अपना देह त्याग किया । मान्यताएँ और कहानियाँ जो भी रही हों, मगर यह पर्व, हिन्दू जातीय एकता और समृद्धि का प्रतीक है । जहाँ सभी लोग इस पर्व को उत्साह और उमंग के साथ गंगा में लाखों की संख्या में स्नान कर मनाते हैं । यह एकता और सद्भाव किसी भी मूल्य पर बना रहे , किसी भी मूल्य पर खंडित न हो पाये । हमें इसका सदा ख्याल रखना चाहिये कि यही चेतना किसी भी पर्व के मूल्य और महत्व को बढ़ाता है ।

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