Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मन तू जरा हौले-हौले डोल

 

मन तू जरा हौले-हौले डोल


मन  तू   जरा   हौले - हौले   डोल

आज   निशीथ   की   नीरवता  में

घर  आने  वाला  है   मेरा  चितचोर

देखो ! स्वागत   में   सागर , पहाड़

फ़ूल,गलियाँ-कलियाँ,सभी हैं साँसें थामे

तू  क्यों  मचा  रही  है  इतनी शोर

मन   तू   जरा  हौले – हौले  डोल


जिसके  लिए  मेरे  हृदय में, घिरी रहती मेघमाला

जलमयी रहती आँखें मेरी,फ़िर भी न होता कंठ हरा

जो  बंद आँखों की खिड़की से ,मुझे अंतर व्योम में

हर  क्षण  दिखलाई  पड़ता, जो है  मेरा जीवनधन

जिसके   लिए  जीवन, जिंदगी  संग  रहता  जंग

जिसके  बिछोह   में, व्यथित  प्राण  मेरा , धोता

रहता  ,   अमर    काल   का    पंथ    अनंत

जो  है  मेरा  सिरमौर, आने  वाला है वह चितचोर

मन  मत  आँक  तू  मेरे  आँसुओं   का   मोल

लघु  प्राणों  के कोने में, रहकर तू  हौले-हौले डोल

जिसके  बिना  मृत्यु  क्या  है, नहीं  हमें  मालूम

फ़िर  भी   मन  लेता, बार - बार  उसी  को चुन

जिसके  आगे  जानकर  बनती  थी  मैं   अमोल

बढ़ा  देख  कौतूहल  उसका, जाती  थी  मैं  तोल

जिसकी सुधि कसक-कसक कर हृदय को देती तोड़ 

मन  मत अंकित कर उसे तुम रेखा-सी सिकता में

वह   तो  मेरे  निश्वासों  के  रोदन  में, इच्छाओं

के  चुम्बन  में  रहता   दिन - रात, शाम - भोर

मन     तू    जरा    हौले   -   हौले    डोल




वह   मेरे   मन  - मंदिर  का  देवता  है

मैं ,  उस   मंदिर   की   पुजारिन    हूँ

ले - लेकर   निज  अश्रु –  जल ,  मंदिर

प्रांगण  को    नित   लीपा   करती   हूँ

पीड़ा सुरभित चंदन-सी वह मेरे, प्राणों संग

लिपटा रहता है, निज साधों से निर्मित कर

मैं अपने प्रिय का रूप सलौना,नयन पथ से 

सपनों  में उससे मिल  आलिंगन भरती हूँ 

मगर तू क्यों किसी के, आगमन के शकुन 

स्पंदन  में  है  मनाती, रातों को  सोती है 

आँखें  खोल ,मन  तू जरा  हौले-हौले डोल






Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ