----डा० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई
सर्व शक्तिशालिनी, माँ काली की असीम दया तथा अपने बुजुर्गों के आशीर्वाद एवं प्रिय पाठकों के अटूट स्नेह का प्रतिफ़ल है, कि अबतक मेरी 32 कृतियाँ, 20 कविता-संग्रह, सात ग़ज़ल- संग्रह,एक आलेख संग्रह,दो कहानी-संग्रह और दो उपन्यास; अपने चहेते पाठकों को सौंपने में सक्षम हो सकी हूँ । कहानी –संग्रह ,’तृषा’ कुछ आपबीती, कुछ जहाँ हम रहते हैं, वहाँ के आस-पड़ोस की घटनाएँ,संग्रहित हैं । मैंने उपन्यास, ’दूसरी औरत’ में, ’एक गरीब और अशिक्षित नारी के साथ यह दुनिया किस प्रकार का सलूक करती है’,इसे यथासंभव दर्शाने की कोशिश की है ।
मैंने अपनी जिंदगी में सुख-दुख, कम-वेश दोनों का अनुभव किया है । मेरा मानना है, कि उत्सर्ग की वेदी पर खुद को शून्य कर देनेवाले, वैराग्य- साधना द्वारा मुक्ति की आकांक्षा नहीं रखते, वे तो असंख्य बंधनों के बीच रहकर महा-आनंदमय मुक्ति का स्वाद चखते हैं । वे जीवन के उन्माद, उल्लास, वेदना और विह्वलता को सृष्टि की सरसता की तरह देखते हैं ।
जीवन अनुभूतियों की संस्कृति है, इसलिए प्रत्येक मानव अपने परिवेश में रहते हुए,किसी न किसी दुखात्मक या सुखात्मक अनुभूति को जनम देता है, और संवेदनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया, मूल्यात्मक चिंतन के आधार पर करता है । अनुभूति किसी बालक की भी हो सकती है; जिसका भी हो,इस स्वानुभूति के लिए मानसिक परिवेश होना अनिवार्य है । मैंने कोशिश किया है , मेरी कविताएँ, समय-काल की मनोवृति के दर्पण हों, जिन्हें मैंने अपनी भावुकता से बचाकर मान्यताओं के प्रकाश में संवारा है , तथा कविताओं के बाहरी और भीतरी,दोनों ही उपादानों से सौन्दर्य, करूणा और भक्ति प्रतिस्थापित होती हुई प्रतीत हो, कोशिश की है । लौकिक प्रेम से अलौकिक आस्था को एक सूत्र में बांधने का भी भरसक प्रयास है । मेरा मानना है, प्रभु के समक्ष अमरता तुक्ष है ।
मेरी कविता-संग्रह, ’अंकि’ता” के ’स्वर्णधन’ कविता के माध्यम से जीते हुए ग्रीष्म तपित और शापित धरती के पुकार को सुनने का प्रयास है । तृण-तृण पुलकावलि भरने के लिए, पृथ्वी के स्वर्ण रजकणों का अपना महत्व है । ऋषि-मुनियों की तपोभूमि आज भी स्वर्ग की पंक्ति में भारत की धरती पर सुशोभित है, और यही इसका स्वरूप भी है ।
’अंकिता’ की लगभग सभी कविताओं में तारतम्यता के साथ-साथ भूत, भविष्यत और वर्तमान की सभी अनुभूतियों को प्रेरित करने का प्रयास है । इस तरह ’दूतिका’ ( मेरा सोलहवां कविता-संग्रह ) भी मानवीय भावों में उदित आशा और निराशा के अतिरिक्त,प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत की तात्विक मीमांसा का आईना है, जिसमें राष्ट्र से सम्बंधित प्रत्येक आरोह-अवरोह को जानने-समझने का प्रयास मैने किया है । ’यग्य समाप्ति की वेला” शीर्षक कविता में मनोभावों की अभिव्यक्ति में अन्यान्य इन्सान की तरह कुछ पूछने के पहले मेरी देव से क्षमा-प्रार्थना है, यह जानने की लालसा, आखिर मनुज के पंचतत्वों में विलीन होकर भी, यग्य पूर्ति की कामना क्यों बनी रहती है । यह संकलन प्रकृति वैभव से भी अछूता नहीं है । इसमें नवीण भावनाओं की झलक है । मेरे अन्यान्य संग्रहों में (एक बूँद की प्यासी,सिसक रही दुनिया, पाली में भी खोजते रंग,एक पालकी चार कहार, साँझ भी हुई तो कितनी धुँधली,एक दीप जला लेना,रजनी में भी खिली रहूँ किस आस पर,अब तो ठंढ़ी हो चली जीवन की राख,यह जीवन प्रात: समीरण सा लघु है प्रिये,तम की धार पर डोलती जगती की नौका,विषाद नदी से उठ रही ध्वनि,नदिया मोह बूँद सिकता बनती,यह जीवन केवल स्वप्न आसार,सिमट रही संध्या की लाली,साँझ का सूरज,तिमिरांचला, निरूपमा, समर्पिता ), जीवन-मृत्यु की सत्यता,सुख-दुख, मिलन-विछोह, पारिवारिक तथा सामाजिक उलझनों, समस्याओं एवं व्यक्तिगत अनुभूतियों को उजागर करने की तुच्छ कोशिश है । मेरा मानना है, महा-आनन्दमय मुक्ति का स्वाद अगर चखना हो तो,उसके लिए वैराग्य –साधना की आवश्यकता नहीं है, बल्कि असंख्य बंधनों के बीच रहकर भी संभव है । अगर मैं कहूँ कि मेरी अधिकतर कविताएँ ’प्रेम की पीर’ से है ,जो भक्ति प्रवणता में जीवित है ; तो गलत नहीं होगा ।
मेरा मत है, संतोष, नम्रता,सत्य, सत्संग, समता और विवेक, ये सभी आत्मा का उद्धार करते हैं । इसलिए इन्सान को, अपनी व्यस्तता से कुछ क्षण निकालकर, अपना मन और नयन ,सभी प्रकार से सुखकारी नंदलाल से लगाना चाहिये । राम-नाम का रस पीकर, आत्मा को स्वस्थ और विकारहीन रखना चाहिये । उच्च कुल का अभिमान व्यर्थ है; बिना श्रेष्ठ काम किये किसी का उद्धार नहीं हो सकता, न ही मनुज जनम दोबारा पा सकता । इसलिए मनुज धर्म का पालन अति अनिवार्य है ।
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