डा० श्रीमती तारा सिंह
अतीत की स्मृति का अनुराग
प्रलोभन का बन अभिशाप
जीवन की व्याकुलता से लटका
अंतर में आज भी रहा है जाग
बेच दी मैं, अपना जीवन अनमोल
मिली जग से व्यथा, तुला पर तोल
फ़िर भी न मिला, जीवन को साध
थक गयी मैं,जीवन की तप्त धूलि में
कर-कर, अपने अश्रुजल का छिड़काव
हृदय वन की कोकिला,जीवन धूलि में
नभ की चाह लिए सदा रही बीमार
मधुमास का दिन, व्यथा घन बन
अतृप्ति का बरसाता रहा आग
प्राण के कण- कण की पीड़ा
रहे आबाद, मन गाता रहा गान
अश्रुमुखी विरह -अनल पीती रही
सोच नियति से माँग लाई हूँ
जब शाप, कर वरदानों का संधान
कैसी पीड़ा,कैसी वेदना,क्यों कर छान
दीपकमय हो पतंगा जब
करता अपना जीवन दान
दुख की प्राप्ति होगी या सुख की
स्वर्ग मिलेगा या नरक, पूछ
मृत्यु से, नियति के विधान का
क्या करता कभी अपमान
फ़िर मेरा मन क्यों बार-बार, सोच-
सोचकर विलख रहा, कर रहा विलाप
जब यौवन की शैल तटी में हरी-भरी
दूब थी विहँस रही,तब मैत्री की शीतल
छाया में न बैठकर,तकदीर दूर खड़ी रही
कर जीवन की जटिलताओं का अनुमान
आज जब अतीत की निर्जनता से,वर्तमान का
कराना चाही मैं अभिषेक चुपचाप, तब
क्यों, विषाद में लिपटी स्मृतियाँ, घन चपला
सी लुटी निरखने लगीं, मेरी भींगी
पलकों को कराने लगीं,ज्वालामुखी से पहचान
समझाने लगी, भस्म न बनता अगर य्ह जीवन
तब सनातन की शून्यता के सिंधु में,सम्पूर्ण
लय कैसे होता, यह तन तत्वों का अस्तित्व
अनस्तित्वों में है छिपा,नियति कैसे देती प्रमाण
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