Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मिला न कभी चैन का एक पल

 


मिला न कभी चैन का एक पल


मास – मास , प्रतिदिन ,प्रतिपल उगते रहे
तुम्हारे मन में मेरे लिए गरल
जलते रहे खुद भी ,जलाते रहे मुझे भी
मिला न कभी मुझे चैन का एक पल
फूँककर जगत के कर्ण कुहर में अपना
नाम देव ! जीती रही लेकर तुम्हारा नाम
जीवन धारा का सुंदर प्रवाह सूख गया
तुम प्रतिबिंबित तारा को पकड़ने खड़े रहे
मेरी तरफ मुड़कर न तुमने देखा



अब तो न आँखों में रोशनी रही
न ही बची इच्छा में उमंग
फिर भी उमड़ती क्यों जलराशि अपार
जब देखती हूँ गगन में हँसता मयंक
चिर क्षुधा शीत की चित्कारें दुख का
क्रन्दन , अब मुझे बिचलित नहीं करता
अब सक्षम है इन संघर्षों से मेरा जीवन



तुम मदिर मुग्ध राका झिलमिल
कैसे तुम्हारे मन का प्रकाश गया बुझ
कैसे सागर उर तुम्हारा पाषाण हुआ
कैसे हुई तुम्हारी ज्वार शिथिल
कैसे विरह में भी ऊबे नहीं तुम्हारे प्राण
कैसे हुआ तुम्हारा मन मुझसे वियुक्त
मैं क्या जानूँ, मैं तो अपने जीवन के निर्जन तट
पर बैठी सहती रही, पीड़ा-वेदना का तीखा समीर
तुम धूमिल छायाएँ बन गरजते रहे मेरे सम्मुख
मैं खोजती रही अपने जीवन में तुम्हारा चरण चिह्न्



मेरे अंग - अंग से कभी लिपटा होता था
कुसुम रज, केसर, चन्द्र विभा चंदन , ज्यों
हरित कुंज की छाया संग वसुधा का आलिंगन
मन के रस प्रकाश से जलता रहता था
मेरे मदिर अधरों पर तरंगों का वारिंगण
पलकों के नीचे चमकती थी ज्योति,चतुर्दिक
रहता था,मेरी ही सुंदरता की आभा का आकर्षण
जिसमें गगन दीखता था मेरे चरणों के नीचे
सूरज्, चाँद ,सितारे रहते थे मेरे आंगन



लोग कहा करते थे , तुम जहाँ बैठी हो, वही है बैकुंठ
उसके ऊपर-नीचे न स्वर्ग है, न नरक , न पाप, न पुण्य
तुम्हारा ही रूप ग्रहण कर नियति जाल से मुक्ति दिलाने
सद्य फूटित कमल सी अमृत धारा बन आता स्वप्न
तुम्हीं हो दशो दिशाओं की स्वामिनी, तुम्हीं हो त्रिभुवन्
जिस पथ से निकल जाती हो तुम,वहाँ दीपक बल जाता है
तुम जिस रोज न गुजरो इधर से, जीवन लगता जंग

तुममें सिद्धि की लौ, योग की कोमल विभा है
तुमको तपस्या , साधना की क्या जरूरत है
तुम तो खुद हो आनंद की स्रोतस्विनी मूढ हैं वे
जो तुमको चन्दा समझकर खोजने जाते गगन
तुम्हारे पास खुद स्वप्न देह धरकर आता
जीवन क्लांत मन मुक्ति पाता तत्क्षण


लेकिन जब से मेरे जीवन में आए
बदल गए सूरज – चाँद - तारे सारे, कहता
मही के ऊपर स्वर्ग होता, जहाँ खुशियों के
छूटते रहते फौव्वारे, साँसों में भरता रहता सुगंध
यहाँ धरती का तन आग है, अंगार है, गरल है
हर पल मरघट की याद दिलाती,जीवन जिंदगी की
डाली से फ़ूटता तो है,मगर कोंपले बन रहता नग्न



माँगी तुमसे बहुत कुछ् मगर अब न कुछ माँग़ूंगी
हो अगर तुम्हारे पास मृत्यु की धारा,तो उसे बहने दो
स्वच्छन्द,रहने दो जिंदग़ी की छाँह से मुझको निस्पंद
यह तुम्हारे विरुद्ध कोई शिकायत नहीं, यह तो
अंतर्मन की बेकली है, जो कंठ से नहीं फूटकर
आज शब्द बनकर निकल पड़ी, मेरी कलमों से
जहाँ शैल उलटकर गिर रहा है, सागर जल ऊपर
भागा जा रहा है, वहाँ गिरती बूँदों को कौन तवज्ज़ो
देता, कौन सोचता , सागर बनता इन्हीं बूँदों से


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