Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुझे अपनी गरीबी पर गर्व है

 

                                       मुझे अपनी गरीबी पर गर्व है 


              ऐश्वर्य के स्नेह-जल से वंचित, सत्य और न्याय के सहारे जी रहे विगतराम पर, जाति-पाति या कुल का अधिपत्य नहीं था , पर उसे अपनी गरीबी पर बहुत गर्व था | उसका कहना था ----- इस संसार में धर्म के बंधन से 

कहीं अधिक कठोर होता है, धन का बंधन | धन, समाज में विभिन्नता और द्वेष उत्पन्न करता है तथा उसकी दाह्यमय चिंता, आत्मा को सोने की जंजीर बनकर बाँधे रखता है | मुझे ऐसे धन न होने का गर्व है, उसके तर्क को सुनकर उसका दोस्त सलीम कहता ---- विगतराम ! तुम में जो सरलता, जो इमानदारी, जो श्रम और धर्मबुद्धि है, मैं तो कहूँगा, तुम मनुष्य नहीं देवता हो ! तुमको भोग-विलास से मतलब नहीं , अपनी दयनीय दशा पर भी संतुष्ट रहना; तुम्हारा देवत्व है | देखना , तुम्हारा यह सीधापन एक दिन तुम्हारे लिए घातक सिद्ध होगा | मेरी मानो--- अपनी सोच को बदल दो !

              एक दिन विगतराम, मुखिया का खेत जोत रहा था , तभी उसने देखा---उसका दोस्त सलीम बाज़ार से, जरूरत से अधिक सामान अपने सर पर लादे, घर लौट रहा है | 

विगतराम चिल्लाया, पूछा ----- सलीम ! ओ सलीम, क्या बात है यार, आज तो लगता है, पूरा बाज़ार ही खरीदकर घर ले जा रहे हो, कोई अनुष्ठान है क्या ?

सलीम, करीब आकर सिर का बोझ नीचे उतारकर रखते हुए बोला --- हाँ दोस्त ! तुम्हारी दुआ से फातिमा की शादी एक जगह तय हुई है | आज शाम मैं तुम्हारे घर, तुमको आमंत्रित करने जाने ही वाला था ; अच्छा हुआ, तुम यहीं मिल गए | मैं अकेला आदमी, कहाँ-कहाँ जाऊँ | तुम तो मेरे यार हो, मेरी मजबूरी को समझते हुए, मेरा निमंत्रण स्वीकार 




कर शादी में जरूर आना | शादी अगले महीने की दश तारीख को है, तुमको आना है |

विगतराम आत्मीयता के साथ कहा --- शर्त कठिन है, मगर मंजूर है |

विगतराम, 10 तारीख को ठीक आठ बजे सलीम के घर पहुँचा | वहाँ पहुँचकर उसने देखा--- सलीम की दरिद्रता, घर के कोने-कोने में बैठकर छाती पीट रही है | आँगन में गाँव के ही कुछ लोग , सब्जी और पूरियाँ बारातियों के लिये तैयार कर रहे हैं | दरवाजे पर एक पेट्रोमैक्स जल रहा है | विगतराम, आँगन में जाकर सलीम से मिला , और कहा--- सलीम ! कोई काम मेरे लायक हो, तो बताना ?

सलीम, मुस्कुराते हुए बोला ----मेरे दोस्त, अपनी जरूरत तुमसे न बताकर किससे बताऊँगा ! तुम्हारे सिवा मेरा और है कौन ; अपने तो सभी छूट गये हैं | जो नहीं छूटे, वो कल छोड़ने ही वाले हैं | 

विगतराम ---- दोनों हाथ उठाकर सजल नेत्रों से आकाश की ओर देखा और कहा---- अल्ला ! हम अपनी बच्ची को तुम्हारे संरक्षण में भेज रहे हैं , तुम उसका ख्याल रखना |

             निकाह की दूसरी सुबह फातिमा विदा होकर सलीम के घर से, अपने पति के घर चली गई | कुछ महीने तो फातिमा का ससुराल वालों के साथ अच्छा बीता, मगर दो-तीन महीने बाद ही, कलह शुरु हो गया | फातिमा की सास बातों-बातों में कहती---- बड़े अरमान से तुम्हारे साथ अपने बेटे की शादी की, लेकिन सारे अरमान धरे रह गए | फातिमा जब कभी, पति कादिर के पास जाने की कोशिश करती, तो वह अकड़कर वहाँ से चल देता | एक दिन तो हद ही हो गई ; फातिमा के श्वसुर मोहम्मद इकबाल ने फूले हुए गालों में, धंसी हुई आँखें निकालकर , कहा--- बहू ! अच्छी तरह सुन लो , जिस काँच के टुकड़े को मैं हीरा समझकर अपने घर लाया , उसके ह्रदय में ससुराल 




के लिए रत्ती भर भी स्थान नहीं | इस बात पर मुझे बहुत दुःख होता है |

फातिमा, कातर भाव से पूछी---- अब्बाजान ! मैं कुछ समझी नहीं ?

इकबाल, एक क्षण द्विविधा में पड़ा रहा , फिर बोला ---- बहू ! मुझे तुमसे कोई बैर नहीं मगर आश तो है | तुम मेरे घर आई , मुझे कौन सा धन मिल गया, उल्टा अपने बेटे के सर पर एक और बोझ चढ़ा दिया | पहले की तंगी क्या कम थी ,जो और उसे एक चिंता चढ़ा दिया | कमानेवाला एक, खानेवाले पाँच ; कैसे गुजारा होगा ? बहू तुम ऐसा करो , एक बार तुम अपने पिता को यहाँ की परिस्थिति से, उन्हें अवगत कराओ , शायद वे कुछ हल निकाल सकें !

फातिमा, मन ही मन बुदबुदाकर बोली---पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं अच्छा है | अपनी आत्मा को बेचकर आके लिये धन ला सकूँ , जीने के लिये तब भी महँगा नहीं होगा |  फातिमा, जो कि केवल अठारह साल की थी, उसे जीवन का अनुभव ही क्या था ; ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का ‘निश्चय’ ही उसके लिए मान्य था | वह सोचने लगी---जिस घर की खातिर मैंने अपने पिता का घर छोड़ा , आज यह घर मुझे नित पाश्चाताप का प्याला क्यों पिलाती है ? नींद कोसों दूर हो गई ; क्या कहने को यह घर मेरा है ? 

            फातिमा पाव फटते ही अपने श्वसुर का संदेश लेकर 

 पिता के घर पहुँची | बेटी का अकेला आना देखकर सलीम डर गए | उन्होंने कंपित स्वर में पूछा ----बेटा ! तुम अकेली , दामाद जी कहाँ हैं ? 

फातिमा कुछ न बोलकर, सत्यता और दीनता की मूर्ति बनी, आँखों में आँसू लिये चुपचाप खड़ी रही, मानो किसी ने उसकी ह्त्या कर दी हो | फिर धीरे से बोली----अब्बू ! वे नहीं आये हैं , वे और उनके माता-पिता, सबों ने मुझसे कहा है, ‘तुम तब तक यहाँ लौटकर नहीं आना , जब 




तक पचास हजार रुपये का इंतजाम, तुम्हारा अब्बू न कर दे’ ! मैं आई नहीं , मुझे घर से निकाला गया है | 

सलीम का गला भर आया , और अश्रु-जल बह निकला ; रोते हुए कहा---मेरे होते तुम चिंता मत करो, मैं जल्द ही कुछ करूँगा |

             एक दिन किसी काम के सिलसिले में घूमता-घूमता विगतराम, सलीम के घर आ पहुँचा | वहाँ पहुँचकर उसने देखा--- एक चटाई पर गाँव का मुखिया और एक नम्बरदार बैठा, सलीम से कुछ बतिया रहा है, और सलीम एक मैली-फटी पोटली से कुछ कागजात निकालकर उसे दिखा रहा है | आँखें सूजी हुई हैं , मगर मुखिया की आँखें विकसित हैं और नम्बरदार फूला नहीं समा रहा है | विगतराम को शंका हुई , वह दौड़कर सलीम को गले लगा लिया और अभिमानमय उल्लास का सुख उठाते हुए उसे आँगन में लाया , पूछा ----मित्र ! यह सब क्या हो रहा है ? 

विगतराम की बातों को सुनकर सलीम की आँखें डबडबा आईं | उसने रोते हुए कहा ----- मित्र ! सब भाग्य-विडम्बना, तुमसे क्या छिपाऊँ, ससुराल से फातिमा का यहाँ लौटे हुए आज आठवां दिन है |

विगतराम, सलीम की बातों से चौंक गया , पूछा---- क्यों, कोई तकलीफ | इस तरह अकस्मात आने का कारण ; कुछ तो होगा ? 

सलीम द्रवित हो बोला ---- उन लोगों को पचास हजार रुपये चाहिए ; कहते हैं , शादी के नाम पर तुम्हारे बाप ने मेरे बेटे को ठग लिया | जब तक पैसे का इंतजाम न हो जाय, तुम हमारे दरवाजे पर नहीं आना ; तुम्हारे लिए यहाँ का दरवाजा बंद हो गया | तुम्हीं कहो, मैं इतने पैसे कहाँ से लाऊँ ? मेहनत-मजदूरी कर पाई-पाई जो कुछ जमा किया था, शादी में सभी खर्च हो गए | अब तो एक घर के सिवा, मेरी जान बची हुई है, और तो कुछ है नहीं मेरे पास ; ऐसे में तुम्हीं बताओ मित्र , जिस बेटी को मैंने अपना ह्रदय-रक्त पिला-पिलाकर बड़ा किया, आज अपना घर होते, उसका घर कैसे उजड़ने दूँ ?


विगतराम अफसोस जताते हुए कहा---- शादी में दामाद जी की बातों से तो मालूम होता था, धन्ना सेठ का बेटा हो | बाप की लाखों की संपत्ति , बाप के पाँव के नीचे से गंगा बनकर बह रहा हो | ऐसा आदमी, बहू को निचोड़ रहा है | लानत है, थूकता हूँ, मैं ऐसे परिवार पर |

विगतराम सहसा खड़ा हो गया, और सलीम से कहा--- मित्र ! तुमसे मेरी एक विनती है , तुम अपना घर मुझे लिख दो , मैं तुमको पचास हजार रुपये कल सुबह लाकर दूँगा |

सलीम आँखों में आँसू भरकर अचंभित हो बोला----तुम मेरा घर खरीदोगे ?

विगतराम ठनककर कहा --- हाँ, तुमने ठीक सुना; तुमको घर बेचने से है; कौन खरीदा, इससे क्या मतलब ?

सलीम की आँखें डबडबा आईं, बोला --- ठीक है , ये लो घर के सारे कागजात, और मन ही मन कहा---- आज के बाद, मैं और मेरे मित्र के बीच खुदा को भी नहीं आने दूँगा |

            सलीम के घर के सारे कागजात लेकर विगतराम मुखिया के घर पहुँचा, कहा----- मुखिया जी ! आप मेरे मित्र सलीम का घर खरीदना चाह रहे थे ;  वो तो मेरे पास बेच दिया , लेकिन मैं अपना घर आपके पास बेचने आया हूँ , उसे लेकर . मेरे मित्र सलीम पर दया कीजिये |

मुखिया क्रोधित हो पूछा---- वो कैसे ?

विगतराम हाथ जोड़कर, व्यथित स्वर में कहा ---सलीम के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बिना घर के उसे कैसे पालेगा ? मेरे तो कोई नहीं हैं, ‘न आगे नाथ ,न पीछे पगहा’, मैं कहीं भी रह लूँगा | यूँ कहिये, जहाँ बैठ जाऊँगा, वही मेरा घर होगा | 

          ईश्वर की दया से मुखिया के मन में,विगतराम की बात बैठ गई, और उसने 50000/- पचास हजार रुपये देकर घर के कागजात रख लिये | दूसरे सुबह, विगतराम हलसता हुआ सलीम के घर पहुँचा | 


रुपये की गठरी थमाते हुए कहा---- गिन लो दोस्त, पूरे पचास हजार हैं, और आज ही फातिमा को उसके ससुराल भेज दो |

सलीम टूटी निगाह से विगतराम की ओर देखकर पूछा--- मित्र ! ये पैसे तुम कहाँ से लाये ?

विगतराम मुस्कुराकर कहा--- इन सब बातों को छोड़ो, और हाँ, ये लो , तुम अपने घर के कागजात |

सलीम, भौचक्का होकर पूछा --- मेरे घर के कागजात तुम लौटा क्यों रहे हो ?

विगतराम ---- मित्र ! मैं अकेला आदमी हूँ, मैं घर रखकर क्या करूँगा ? सो मैंने अपना घर बेच दिया | अब यह मत पूछना , ऐसा मैंने क्यों किया ? मेरे मित्र का घर बच गया, और बेटी का घर बस गया | क्या है न यह मेरे लिये गर्व की बात , तभी तो मैं कहता हूँ, ‘’ मुझे अपनी गरीबी पर गर्व है “


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