पहले ही दुनिया थी अच्छी
पहले ही दुनिया थी अच्छी
रसगंध भीगे गीत कोयल थी गाती
माली की मँड़ई से उठकर धूमाली
पवन संग नभ के नीचे थी तिरती
सभ्य, शिष्ट संस्कृत मन, जग –जीवन के
अंतर्मुख के नियमॊं से होता था परिवर्तित
पर्वत–सा दर्पण दिखलाकर कहता था सावन
देखो ऊपर, प्रीति पात्र –सा छलक रहा नभ
स्वप्नों की, तुलि से भर उसमें अपना
सप्तरंग मन, कर दो उसे चित्रित
जिससे उसके रंग बोधों में असीम
अनुराग तुम्हारा, होता रहे बिम्बित
पहले लघुराग खंडित लोग नहीं थे
न ही रंगों, धर्मों से होते थे विभाजित
सामूहिक मानस के स्पंदन से प्रेम था जागृत
आत्मा के हीरक प्रकाश से मन था प्रकाशित
तन पिंजड़े में बंदी आत्मा रहती थी हर्षित
धरा प्रेम में परिणत होकर मूर्त्त होती थी भक्ति
विघटित मन सामाजिक परिवेश से होकर मंडित
अपने जीवन के क्षण-धूलि को,रखता था सुरक्षित
कहता था जग – जीवन की सहज भावना से
जो संस्कृति होती निर्मित, उससे अंतर की
सौन्दर्यता और पवित्रता बनी रहतीं
श्रेणी वर्ग में मानव होता नहीं विभाजित
अब तो भ्रांत मानव निर्मम पाषाण हो गया है
मृत्यु विचरती ज्यों धरा पर होकर निर्भीक
त्यों जगत को विच्छिन्न करने,मनुष्य वेष में
काल घूम रहा, होकर शस्त्रों से सुरक्षित
अब मेघों की चंचल छाया, अम्बर से
सुख सपनों के सौरभ को लेकर नहीं उतरता
न ही सुर प्रेरित आभाएँ , तड़ित बनकर
मनुज मन के हृदय अंतर को चकित करतीं
पुलीनों पर फ़ैला सुषमा की पंखुड़ियों का दल तो रहता
मगर शशि सूरज का न तो उस पर प्रकाश पड़ता
न ही स्वप्नों का नीरव पावक, प्राणों को सुलगाता
निज चरणों के चाप से, प्राण सदा शंकित रहता
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