Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रेम –प्रेम क्यों पुकार रहा रे

 

               प्रेम –प्रेम क्यों पुकार रहा रे


प्रेम-प्रेम क्यों पुकार रहा रे, प्रेमी
प्रेम-प्यार की खतम हो गई दौड़
अभी तो चल रहा है घृणा, द्वेष
कपट, छल,हिंसा, स्पर्धा की होड़

कौन कितना,मुट्ठी में अणु–संघार लिये
कर सकता है विनाश का वज्र घोष
कौन कितना दिखा सकता अपना रोष
जिससे सिहर उठे, धरती का कण- कण
हिल उठे अंतहीन अम्बर का ओर- छोर


कहते हैं वन फ़ूलों की घाटी को बिखरा देंगे
शोभा पल्लवों को रख देंगे हम तोड़- मरोड़
लूटेंगे रस के मटकों से भरे फ़ूलों को
जो लटक रहे हैं चेतन भुवनों से लगकर
जिससे सुरभित , सुगंधित है यह खगोल





हमें नहीं चाहिये ,आदर्शों का बिचुंबी शिखर
जो मानव अंतर को रखता चतुर्दिक घेरकर
प्राणलता को छूने नहीं देता,मनवांछित नभ
रखता पाप-पुण्य की लौह बेड़ी से जकड़कर
कहता धर्म,रीति-नीति और प्रेम-प्यार-प्रीति
ये सभी हैं,जग–जीवन की मुक्त योजना का
स्वर्ण-पाश , रहो सदैव इसके संग बँधकर

सभी देतीं समान पीड़ा, कभी नहीं होतीं ये सुखकर
मोह- प्यार- प्रेम, ये सभी हैं विचारों के बंधन
मुक्ति पाना है तो पहले इन बेड़ियों को काटना होगा
इनसे बंधकर जीना बड़ा ही होता दुष्कर
जब हम सभी जानते,बेड़ी स्वर्ण की हो या लौह की
माया कहकर क्यों मृषा मेटते हो, स्तित्व प्रकृति का
देखो नदियाँ, वृक्ष, सागर, पहाड़; इस शून्य मंच पर
कैसे जीवित साकार खड़े हैं एक, दूजे से दूर हटकर

पाप, पुण्य.दोनों ही बाधक हैं,शांति समता के
दोनों से निश्चिंत बहने दो,चेतना के अभंग को
करने दो उसे अपना कृत्य,स्वयं में लिप्त होके
ये विधि निषेध नहीं,नियम हैं अर्जन-वर्जन के


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