प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत की परिस्थितियाँ तलाशती ‘‘दूतिका”
‘‘ दूतिका‘‘ कवयित्री डा0 तारा सिंह का 19वाँ काव्य संकलन है । इसके भीतर सांसारिक सुख- दुख, मानवीय भावों में उदित आशा और निराशा के अतिरिक्त प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत की तात्विक मीमांसा के दर्शन होते है । इसमें राष्ट्र से सम्बन्धित प्रत्येक आरोह- अवरोह को जानने- समझने का प्रयास भी यत्र- तत्र देखा जा सकता है । अपने पिताश्री और माताश्री को समर्पित यह कविता संग्रह, साहित्य मनीषियों के लिये जिज्ञासा का भाव प्रदर्शित करने में सक्षम हुआ हैं ।
’यज्ञ समाप्ति बेल” के अवसर पर कवयित्री ने मनोभावों की अभिव्यक्ति में देवाधि देव से क्षमा प्रार्थना कर पूछा है कि आखिर यज्ञ पूर्ति के अवसर पर मेरे जीवन के यज्ञ की ज्वाला से क्या अभिप्राय है ? मनुष्य के पंचतत्वों में विलीन होकर भी यज्ञ की पूर्ति की कामना बनी रहती है । कवयित्री स्वयं से ही पूछ रही है कि कौन है जो मेरी लेखनी से पीड़ा की भाषा में अभिव्यक्ति बनकर सम्मुख खड़ा है। वह यह जानना चाहती है कि करुणा से आद्र आवाज में आँसू के रूप में किस वियोगिनी वाणी का रूप ले लेती है ।
‘‘देख जग ललचा‘‘ के माध्यम से डा0 तारा सिंह की मन की आँखों में व्याप्त अंजन की सजावट का सधा हुआ स्वरूप राजा- रंक, अमीर- गरीब, सबल- दुर्बल सभी को आकर्षित करता है । अमर होने की मनोकामना की अभिव्यक्ति कवयित्री ने ‘‘चाहती हॅू मैं भी अमर हो जाऊॅं ‘‘ में अत्यन्त अलंकारिक ढंग से उद्धृत की है । जीवन के भाग्यविधाता से पूछ रही है कि मैं तुम्हारा नाम पता कहाँ से ज्ञात करूँ । छोटे से जीवन की बड़ी कथाओं के लिखने की भावना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । वह यह भी चाहती है कि जिसे हम अन्धकार में अधरों पर प्यास लिये देखते है, उन्हें प्रकाश में कहाँ से खोजें ।
‘‘पथहीन नभ से उतर आता कोई ‘‘ शीर्षक कविता में भी प्रश्नों का माया जाल बुना जा रहा है । कवयित्री ने चाहा है कि वह भी उस शक्ति के अनुसन्धान को अपने भौतिक चक्षुओं से नहीं अपितु आन्तरिक दृष्टि नेत्रों से देख सके । वह बावला विधु अन्तरंग जन्मों के बन्धनों से किसी निस्सीम के साथ विवाह रचाना चाह रहा है । कवयित्री तारों में भी मेघ माला की प्यास के अनुभवों से अभिभूत है । वह तो संज्ञा विहीन, गोत्रविहीन अनन्त रेखाओं में विलीन हो जाना चाहती है । उसी का नाम जिन्दगी रखकर वह मुस्कराहटों को समेट रही है । वह तो अपनी स्मृतियों को किसी अनन्त पटल पर अंकित कर, अतृप्त प्यासे जीवन को यादों की कन्दरा में विलुप्त कर देना चाहती है । काव्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों में डा0 तारा सिंह ने ’निशितम में दिन का बाद’ शीर्षक में कहा है कि हे प्रिय उठो और आँगन में आओ । नींद को त्याग दो और देखो कि कैसे शून्यता के आँचल से छन- छन कर भंवरों की गुंजन आ रही है । लगता है जैसे चहुँ ओर उसी का स्वरूप उदीयमान हो रहा हैं । वह कहती है कि साँझ तो ढल गई है, अब अन्धकार में डुबोने वाली रजनी के आकार लेने की स्थितियाँ में है । कवियत्री कह रही है कि दिन में जो सूर्य संजीवनी बनकर खड़ा था वही रात में वेदन छाया में तिरोहित हो रहा है ।
‘‘नव आषाढ़ की बूंद सी” शीर्षक कविता में कवयित्री ने आषाढ़ की प्रथम जल बिन्दु का स्वरूप देखा है । उसने देखा कि डालीपर चिडिया की चहक से निःसृत श्वास शीतल पवन की भाँति पुलकित हो रहा था । यही नहीं उसने अंग- अंग में स्निग्धता को विह्वल होते हुए रोमांचित होते हुए अनुभव किया है । देवताओं की सृष्टि विलीन होती रही और उजाला उसे अपने अंक में भरता रह गया । यही कारण है कि वह उस अगम पथ को अपने अश्रु जल से परवारने के उपक्रम में लगी है । ‘‘बची रह जाती है केवल निस्सीमता” शीर्षक कविता में होलिका के आनन्द में डूबे संसार की निस्मीमता के प्रगटीकरण की काव्यविधा है । यही
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कारण है कि वह कहती है कि अगर मुझे जानना चाहते हो तेा दीप जला कर विश्व संगर की अद्धुत भूमि को देखो । जैसे सन्त -पुरूषों का अतीत देखा जाता है, वैसे ही पापी पुरूषों के भविष्य का अध्ययन करना चाहिये । अन्यथा मानवता के भाग्यहीन होने का का भास होता है । सच्ची श्रद्धांजली उस माँ के पद पखारने में ही प्रतिष्ठित है , जो माँ अपनी सन्तान को राष्ट्रहित में स्वयं समर्पित कर देती है । दीन दुखियों के श्रम बल से पोषित अंहकारयुक्त, व्यभिचारी, हठी व्यक्ति की बर्बरता को दर्शाता है । पश्चिम के अथाह सागर में बूँद- बूँद कर प्रकाश के ओझल होते दिनमान को देखा जा सकता है । कवयित्री डा0 तारा सिंह ने ‘‘धरा सुख में क्या रखा है‘‘ में जीवन की त्राहि- त्राहि करती प्राणों की ऊर्मियों को देखा है । अरूण पंख का तरूण प्रकाश अब क्रीड़ा नही करता । वह आशा के मरूथल में तपता हुआ, अपने स्वत्व को खाक होता हुआ देखता है । हैरान -परेशान जिन्दगी उसकी धरती पर स्नेह देती है ताकि सन्ध्या उसकी थकान दूर कर सके ।
‘‘प्रभु मन में आन क्यों भरा‘‘ शीर्षक के माध्यम से कवयित्री प्राण में मन, मन में आन और कण- कण में परिहास जैसी भावना को उत्प्रेरित कर रहा है । कवयित्री ने नारी की विवशता को लाचारी कहकर कंपित दीपशिखा को स्थापित करना स्वीकार किया है । इन्द्रियों की परवशता के कारण नारी स्वयं एक आधार बन गई है । संकलन की ‘‘पुरानी ही दुनिया अच्छी थी ‘‘ शीर्षक कविता में साफ सुथरी और सच्ची अतीत की दुनियाँ को सुन्दर स्वीकार किया है । वह इस धरती के मानव की मृगतृष्णा का भी चित्रण कर रही है । स्वर्ग और नरक के अन्तर का अवलोकन कविता का विशेष स्वरूप बन गया है । भगवान की महानता के विषय में प्रश्न चिन्हों से अच्छादित करते हुए कवयित्री ने ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार किया है । यही नहीं अपितु स्रोतस्वनी नदी को मूर्च्छित होते हुए भी देखना चाहती है । वह सुगंधहीन पुष्पों के सम्बन्ध में चिन्तित है । प्रकृति इस तरह अपना रूप बदल- बदल कर निरन्तर अग्रसर है ।
‘‘शिशु ‘‘ शिर्षक कविता ईश्वरीय स्वरूप को शिुशु के भीतर देखने का उपक्रम है । उसका अनजानापन अपनी पहचान भी नहीं बनाना चाहता; यही पर भगवान महावीर के उधृत काव्य में प्रभु से कामना के स्वर निनादित होते देखा जा सकता है । मिलने को आये अतिथि के सम्बन्ध में कवयित्री डा0 तारा सिंह की काव्यात्मकता परिलक्षित होती है । कोरे कागज पर रंग बिरंगे चित्रों से चित्रकार के दर्शन अपने आप में अलग हैं । किस्मत, कवि उठ जाग, और डूब अमर हो जाऊॅंगा में काव्य की विभिन्न भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं । अन्तिम कविता ‘‘कवि‘‘ में भी कवयित्री की असीमित सीमाओं का उल्लेख है । इस प्रकार ‘‘दूतिका‘‘ काव्य संकलन प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण अनेकात्मक गतिशीलता का अनूठा संगठन बन पड़ा है । सुधी पाठक वृन्द और साहित्य परखी व्यक्ति इस संकलन में नवीन भवनाओं के दर्शन कर सकेंगे । आवरण सुन्दर और आकर्षक है । मूल्य अधिक नहीं है । प्राप्ति स्थल कवयित्री का मुम्बई आवास । प्रकाशक: मीनाक्षी प्रकाशन, शकरपुर, दिल्ली – 110092 ।
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