--- डा० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई
भारतीय शास्त्रों में लिखा है, ’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र देवता ’ । इतिहास साक्षी है, सिंधु घाटी सभ्यता ( हड़प्पा संस्कृति ) में मातृदेवी की पूजा होती थी । आज भी भारत में नारी शक्ति स्वरूप देवी की पूजा- अर्चना, ’या देवी सर्वभूतेषु’ के मंत्रोच्चारण से की जाती है ; लेकिन जब एक औरत की मर्यादा की बात आती है, तब पुरुष विदक जाते हैं । इस दोहरेपन का श्रेय बहुत हद तक हमारे मनुस्मृति और अन्य इस तरह के शास्त्रों को जाता है , जिसमें नारी को घर की सजावट, और पुरुष –स्वेच्छा का सामान मात्र माना गया है । मगर ऋगवैदिक युग में ( १०० ई० पूर्व से १६०० ई० पूर्व ) में भारतीय नारी अपनी समग्र गरिमा और महिमा मंडित थी । ऋगवेद समाज नारी- नर की समानता पर खड़ा था । किसी भी यग्य में पति के साथ पत्नी का बैठना अनिवार्य था । पत्नी अर्द्धांगिनी कही जाती थी । विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त था । बाल-विवाह पर पूर्णत: रोक था । स्त्रियों को पढ़ने- लिखने की आजादी, पुरुषों के बराबर थी; इस तरह की कुछ विदुषियों की चर्चा हम ऋगवेद में पाते हैं; जैसे – लोपामुद्रा, रामेशा, अपाला, घोषा आदि ; उर्वशी व विश्वतारा, अर्थशास्त्र में निपुण थीं ।
द्वापरकाल में पाण्डवों की माता, कुंती , अर्थवेद में पारंगत थी । काश क्रत्सनी नामक स्त्री ने मीमांसा जैसे क्लिष्ट और गूढ़ विषय पर बहुचर्चित पुस्तक का प्रणयन भी किया था, जो बाद में उसी के नाम पर चर्चित हुई । याग्यवल्य की पत्नी मैत्रेय ,एक विख्यात दार्शनिका थी । उसने तो केवल ग्यान-प्राप्ति की अनुमति पाने के लिए पति की पूरी सम्पत्ति में अपना अधिकार त्यागकर पति की दूसरी पत्नी के नाम कर दिया । राजा जनक की राजसभा में होनेवाली विद्वद्जनों की सभा-गोष्ठी में गार्गी ने अद्भुत शक्ति से याग्यवल्य को चौंका दिया था । कौशल्या और तारा, दोनों मंत्रविद थीं; द्रोपदी पंडिता थीं , वह नित्य वैदिक प्रार्थनाएँ किया करती थी ।
भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति का ह्रास मौर्य युगीन ( १८५ ई० पूर्व से ३२० ई० पूर्व ) में होना आरम्भ हुआ था ; तब दास प्रथा भी प्रचलित थी । इसके बाद भी कुछ इतिहासकार मानते हैं मौर्य शब्द इस बात का साक्षी है कि कुल या वंश की प्रसिद्धि होती थी । सतवाहन काल में राजाओं के नामकरण में माता का नाम होना, स्त्रियों के प्रति आदरभाव का संकेत है । मगर गुप्त युग ( चौथी- पाँचवीं ) शताब्दी में प्रेम, करुणा व त्याग की त्रिपथगा भारतीय नारी ऋगवैदिक युग के गरिमामय पद से वंचित कर दी गई । भारत का मध्यकालीन इतिहास , नारी की दासता, शोषण और उत्पीड़न से भरा है ।
गाथा सप्तशती से अनेक विदुषी स्त्रियों का पता चलता है--- रेखा, रोहा , माधवी जैसी कवयित्रियाँ अपनी प्रतिभा और कल्पनाशक्ति के लिए विख्यात थीं । कुछ तो शासन व्यवस्था और राज्य –प्रबंधन में भी दक्ष थीं; जो शासन व्यवस्था अथवा अभिभावक के अभाव में स्वयं प्रशासन का संचालन करती थीं । सिकन्दर के आक्रमण का प्रतिरोध, पति की मत्यु के पश्चात मत्संग की महारानी ने किया था ।
दूसरी सदी ईसा पूर्व में आंध्र सातवाहन वंशीय राजमाता नयनिका ने अपने अल्प वयस्क पुत्र का संरक्षण करते हुए स्वयं प्रशासन का भार संभाला था । विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने अपने पति की मृत्यु के बाद पुत्र की अल्पावस्था के कारण स्वयं शासन किया था । अक्का देवी और मैना देवी जैसी गुजरात की चालुक्य वंशीय रानियों ने निष्ठापूर्वक शासन किया । मुगल काल में रजिया सुलतान, दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला साम्राग्यी बनी । गोंड की महारानी दुर्गावती ने १५५४ में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति, आसफ़खान से लड़कर अपनी जान गँवाने से पहले पन्द्रह वर्षों तक शासन किया था । चाँद बीबी १५९० के दशक में , अकबर की सेना के खिलाफ़ अहमद नगर की रक्षा की । जहाँगीर की पत्नी, नूरजहाँ , राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की । जहाँ-आरा और जेबुन्निसा तो सुप्रसिद्ध कवयित्रियाँ थीं । शिवाजी की माँ जीजाबाई , एक कुशल योद्धा और प्रशासक के रूप में अपनी क्षमता के बल पर, क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित हुईं । दक्षिण भारत में कई महिलाएँ गाँव , शहर, जिलों में शासन की; साथ ही सामाजिक और धार्मिक स्थानों की स्थापना कीं । स्पष्ट है कि महिलाएँ समय पड़ने पर पुरुषों की भाँति , राज्य का संचालन भी कर सकती हैं ।
लेकिन इतना सब करने के बावजूद भारतीय समाज में आज नारी की राजनीति या अन्य बड़े ओहदे में साझीदारी नहीं के बराबर है । पुरुष सोचता है, स्त्रियाँ घर-बच्चों तक सीमित रहें; बाहरी काम मर्दों के लिए होता है । देश को स्वतंत्र हुए साठ साल गुजर गये; बावजूद स्त्री-दमन के प्रति हमारे उन्नतशील समाज में जड़ रवैया यथावत है । प्रगतिशील देशों में तो स्त्रियाँ समझने लगी हैं कि नारी के लिए घर-परिवार उतना ही आवश्यक है, जितना पुरुषों के लिए ; लेकिन भारतीय नारी अभी तक इस पर निष्पक्ष होकर अपना विचार तय नहीं कर सकी हैं । यही कारण है कि हमारे देध में स्त्रियों के हिस्से का अधिकार , मर्द हासिल कर स्त्रियों पर मर्दानगी दिखाता है । नारी सशक्तिकरण के बावजूद संसार की अधिकतर स्त्रियाँ डरी हुई, गूँगी और धर्म द्वारा तमाम तरह की बेड़ियों से जकड़ी हुई हैं । । जब तक स्त्रियाँ जागरूक नहीं होंगी, अपने अधिकार को नहीं पहचानेंगी; अपने संकीर्ण विचारों और कुत्सित सोच का नया रूप नहीं देंगी ; तब तक यह कहने में कोई अतिसयोक्ति नहीं कि नारी, प्रबलशक्ति व प्रखर बुद्धिबल होने के बावजूद समाज के उच्च पदों पर बैठने से वंचित रहेंगी ।
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