रोती हैं सोच-सोचकर मेरी कल्पनाएँ
रोती हैं सोच - सोचकर मेरी , करूण कल्पनाएँ
आती हैं जब याद , नंदीग्राम की घटनाएँ
कैसे शिशु को आँचल में छुपाये,भाग रही थीं माताएँ
ज्यों तेज आँधी में, आसमां छोड़ भाग रही हों घटाएँ
सुषमाओं के कण - कण से विनाश झड़ रह था
मौत साँस में गिन रही थी ,जीवन घड़ियों की रेखाएँ
हर तरफ़ पसरी हुई थी वीरानी , दैन्य गर्त से
निकल–निकलकर बुर्जुआ फ़ैला रहा था,सहस्त्रों भुजाएँ
राज्य देवता घातक बना क्यों, और किसलिए
यह गहन प्रश्न है, गूढ़ रहस्य क्या है,कौन जाने
कौन इसे समझेगा, कौन इसे समझाऎँ
लगता है प्रदेश देवता को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
इसलिए मौत को पा रहे हैं बूढ़े ,बच्चे और बालाएँ
जिस पर भार था प्रदेश प्रजा की रक्षा का
वही अपने वन शेरों को सिखला रहे हैं
प्रजा – अजा को वधकर खाने की तरकीबें
छल - प्रपंच को प्रश्रय देता बंद कमरे में
मौत का हुक्म देता लपेटकर लाल कपड़े में
ये समद मानव अतिक्रमण कर निरीह,निबल
के मन की सीमाएँ देता, नव – नव यातनाएँ
कदम–कदम पर पातक सा खड़े रहते हैं ये,इनकी
संख्या हजारों में है ,एक– दो हो तो नाम गिनाएँ
ये धर्म की बात, गीता का उपदेश नहीं सुनते
कहते हैं यह आहुती है, इस यग्य को चलने दो
जो हमें असुर समझते हैं ,उन्हें समझने दो
वंचक शृगाल बन भूँकते हैं, तो उन्हें भूँकने दो
कुत्सित कलंक का बोध छोड़ो,मगर क्रोध न छोड़ो
प्रांत की वायु हमारे इंगित पर बहती है
आम जन की बेकली अंधेरे में उठकर
अंतर में ही तड़प- तड़प कर रह जाती है
हमारी यह नीति अचल, अमर , अटल है
इसलिए इन्हें समझाओ, फ़िर भी न माने
तो इनके जिस्म के टुकड़े – टुकड़े कर
चील, कुत्तों , कौवों में बंटवा दो ,इनसे
कहो , हमारे धनुष की शिंजिनी तब तक
नरम नहीं पड़ेगी, जब तक जन – मन
के अंतर का ताप शीतल नहीं होगा
खुले अगर कंठ किसी विप्लवी का क्रोध भरा
तो उसे तुरंत उन्हें दीवारों में चुनवा दो
लगता सहस्त्रों दानव आसमान से एक साथ
अपन नरक लेकर ,आ धमके हों नंदीग्राम में
तभी सदाचार यहाँ दृष्टिहीन हो गया है
धर्म , नीति , आदर्श मृण्मय पड़े हैं
खर– तांडव कर ये दानव ,मानव को रौंद रहे हैं
सपनों के ये सारथी बड़े क्रूर,अन्यायी हो गये हैं
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