विश्व के मानचित्र पर देखती हूँ मैं , जिस
भारत माता को, वह हमारी भारत माँ नहीं है
वहाँ मदिर मुग्ध राका–सी झिलमिल करती
अंग- अंग भारत माँ का कनक रश्मि है
लगता जितनी भी स्वर्ग सुधा भूतल पर उतरी
सब के सब यहीं है , ऐसी दीखती है
मगर यह कितना सच है ,पूछो उससे , जिसके पेट में
रोटी नहीं है ,उसको भारत माँ का भुवन कैसा लगता है
दिवस निस्तेज रौशन विहीन दीखता है,मानवता का विप्र
गंध छाया का खुद को पुजारी बताकर ,हरियाली को
जला- जलाकर, नदियों को कलुषित ,समुद्र को दूषित कर
देश को आगे ले जाने की बात करता है
मगर आशा का स्वर भार किसी को तो लेना होगा
भविष्यत के घन गंध गुहों में , कहाँ टंगा है
भारत माँ का वह चित्र , उसे जाकर खोजना होगा
जिसमें अंकित है भारत माता की स्वच्छ ,स्वस्थ
शशिमुख-सी शोभित सुंदर मुखचित्र,पवित्र, जिसमें
समस्त सरिताएँ ,फूलों की घनी छाँहों में बहती हैं
देशभक्ति का फूल खिलता किस तरु पर, उसकी
मूल शिराएँ भी कहते हैं , वहीं है
मैं जिस भारत माँ को खोज रही हूँ , वह
विश्व के मानचित्र पर नहीं है , वह तो नयन
परिधि के उस पार , मन के उच्च निलय में है
वहाँ ग्रीष्म-काल का तपन नहीं, पावस की शीतलता है
पेड़ों पर सूखी डालियाँ नहीं, पत्तियों से भरी टहनियाँ हैं
झंझा का दुर्मद झकोर नहीं,मलयानिल का मधुर स्पर्श है
समरसता को लिए प्रवाहित , शीत -स्निग्ध जीवन है
सिंधु कब कढी , वसुधा के अंतस्तल से , कब भू
निकली समुद्र – जल से , सभी प्रश्नों का उत्तर है
मैं ढूँढ रही हूँ भारत माँ का ऐसा चित्र,जिसमें
वर्णों में विभाजित ,मानव की तकदीर न रहे
सबके जीवन की क्षण – धूलि सुरक्षित रहे
जन – जन की इच्छाएँ पूरित हो, कोई भी
दैन्य , कष्ट – कुंठित जीवन न जीये .बल्कि
स्वर्गलोक से धरती की ओर बहकर जो
आ रहा निरंतर देवों का ऐश्वर्य अतुल ,शोभा
सुंदरता , ज्योति , प्रीति , आनंद अलौकिक
सब कुछ वहाँ स्थापित हो , जिससे
मानवता की धारा मुक्त अबाध होकर बहे
घर – घर के बिखरे पन्नों में नग्न
क्षुधार्त की कहानी लिखी न मिले
खेतों में , तृण- तृण में हरियाली हँसती रहे
जिससे भारत माँ को विश्व के मानचित्र पर
देखने वाले देखते रह जाये सिंधु तरंगित
मलय श्वसित यही है हमारा भारत ,यह कहे
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