Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सलिला की धारा सी तुम कौन हो

 

सलिला की धारा सी तुम कौन हो


जब    मेरे   तन   के   स्फ़ीत   शिराओं   में 

स्वस्थ    रक्त    का     होता    था   संचार

मांस  पेशियाँ   भी  कुछ  अपनी , कुछ विश्व के 

बल  – वैभव , आनन्द से , ऊर्जस्वित  थी अपार

तब तो,तुम प्रतिकूल पवन में,मेरे जीवन तरणी को

गहरे   पानी   में  छोड़  किनारे  लौट  गई  थी


आज जब मेरे जीवन वषंत के अंतिम 

फ़ूल   भी   मुरझ  कर  गिर  चुके

साँझ –  सी ,  जीवन   काया   की

ढीली    पड़   गई   डोर  ,   तब

फ़ूटी  सलिला  की धारा सी, कौन हो

तुम , जो  बढ़ती  आ रही मेरी ओर


क्या तुम नहीं जानती,उद्गम से छूटी 

हुई  नदियों  में कभी धार नहीं होती

न  ही तरंगें, लहरों संग मचाती शोर

अनुभूतियाँ इन्द्रियों से सारी की सारी 

वही होतीं,निनद,कलकल रहते निर्घोष


श्रुतियाँ ,  जिनमें  उडुओं   के  अश्रु   बिंदु

तो अब भी झड़्ते,पर उठते नहीं उनमें हिलोर

अंतरतम  की  प्यास  विकलता संग लिपटी

सोई  रहती ,न तो भावना क संग उत्तेजना

होड़  लगाती, न ही हृदय रहता हिलने योग्य




इसलिए , अपने तन के स्वर्णपात्र में रखी

सुधा-रस को तुम मत छलकाओ मेरी ओर

इसे  अपने  दोनों  बाजुओं  से कसे रहो

तंतु  जो बाँध रहा तुम्हारे-हमारे हृदय को 

तोड़    दो    उसका    अंतिम    छोड़

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