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समीक्षित कृति -- यह जग केवल स्वप्न असार

 

लेखिका --- डा० श्रीमती तारा सिंह, मुम्बई
मूल्य- ६० रुपये, पृष्ठ – ८० , मीनाक्षी प्रकाशन , दिल्ली
समीक्षक---डा० रमेश कुमार सोनी, वरिष्ठ साहित्यकार एवं सचिव, अंकुर साहित्य मंच, बसना (छ० ग०)

 


’ सुख – दुख की परिभाषा गढ़ती छायावादी कविताएँ’
 
’यह जग केवल स्वप्न असार’, डा० तारा सिंह जी की चौदहवीं कृति है जो साहित्य के नक्षत्र में चौदहवीं के चाँद की तरह शीतलता बिखेरते देदीप्यमान है । माता काली की उन पर विशेष अनुकम्पा है जिसके तहत आपमें इतनी गहरी संवेदनाभूति है और शब्दांकन की विशिष्ट क्षमता उत्पन्न हो सकी है ।
भारतवर्ष में प्रकृति ही कविता की जननी रही है, कवियों का हृदय प्राकृतिक दृश्यों की विलक्षणताओं से असाधारण रूप में प्रभावित हुआ है । आधुनिक छायावादी काव्य में प्रकृति चित्रण संबंधी जिस मानवीकरण की प्रवृति का प्राधान्य है उसका मूल वैदिक साहित्य में सन्निहित है । आधुनिक युग में छायावादी कवियों का प्रकृति चित्रण समस्त हिन्दी काव्य में विशिष्ट स्थान का अधिकारी है । छायावाद को प्रकृति काव्य कहा गया है । यदि छायावादी काव्य से प्रकृति तत्व निकाल दें तो वह पंगु हो जाएगा ।
सृजनशीलता के क्रम में तारा जी की इन कविताओं के पास चौंकाने या दहशत पैदा करने जैसी बात न होकर प्राकृतिक और मानवीय चिंतन है । आपकी अभिव्यक्ति अतिआधुनिक न होकर अनुभवों की प्रमाणिकता और सच्चाई की कविता है । इन कविताओं में मानव व प्रकृति के जीवन का चित्रण है जो इसका एक उज्ज्वल पक्ष है । सुख-दुख की नई परिभाषाएँ तलाशती –गढ़ती कविताएँ मानव को पलायन के लिए नहीं बल्कि उसे संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं ।
प्रणय निवेदन भेजती हुई कविता जीवन के क्षण की धूलि सुरक्षित रखते हुए विश्व के मानचित्र पर भारत की तलाश का दर्द महसूसती है और एक सवाल लेकर खड़ी है कि – जिसके पेट में रोटी नहीं, पूछो उससे, भारत माँ का भुवन कैसा लगता है । झंझा – प्रवाह से निकले जीवन रहस्य की व्यथा को कवयित्री द्वारा नियति पर छोड़ा गया है । सौम्य को बाहर निकालकर , प्रलय केतु फ़हराती कविता जीवन के सुख- दुख की परिभाषा गढ़ती हुई कहती है – आत्मा हृदय में निर्वासित होकर जीना चाहती है ।
’ नामहीन सौरभ से ------------ हरियाली तो होगी मगर देखनेवाला इन्सान नहीं होगा’ -- कविता की इन पंक्तियों में चेतावनी है कि जैव विविधता के विलुप्तता के खतरे का, वैश्विक उष्णता और मौसम परिवर्तन के मानवीय प्रदूषण की गतिविधियों को भी उभारा गया है । कवयित्री का प्रकृति और गाँव से तादाम्य उनकी कविताओं में स्पष्ट झलकता है । गाँव से बिछुड़ने का गम भी है और मनुष्यत्व के पद्म को खिलाने का देवों को धन्यवाद भी है ।”अश्रु से भीगे आँचल पर सब कुछ धरना होगा ’ में नारी अस्मिता व स्वतंत्रता की पताका फ़हराते हुए नर के साथ समानता की बात उठाई गई है । भविष्य की चिंता करती हुई कविताएँ अचानक स्वातंत्र्य वीरों को याद करने लगी है ।
 
 
’ गांधी के शिष्य सखा -------- किसी भगीरथ को थमा ॥’
ममता की किलकारियाँ, वात्सल्य की पुकार लिए कविताएँ बसंत का स्वागत कुछ इस प्रकार करती हैं –
 ’ फ़ूलों के भ्रमर स्वर -------------- आसमां से बातें करने ॥’
’पारिजात धूलि बन रहते थे बिछे’ कविता  में  अपने  प्रिय  से  वियोग  का  दर्द  है  तो  नारी  की  महत्ता का नया रंग देखने को मिलता है । पतझड़ पर ही बसंत आता है और इन बसंती रंगों- खुशबुओं में इतराते जीवन को चेताया गया है कि यह जग केवल स्वप्न असार है । एक मंज़िल के मुसाफ़िर हम, एक हमारा नारा – एक भारत हमारा, कहती हुई कविताओं की निर्मल धारा वर्तमान संतानों की अपनी माता – पिता की उपेक्षा देखते हुए बर्बर मनुजता, अनाचार, अत्याचार की चीत्कार के बीच से गुजरती है । ’ कंकड़ को शंकर ’ बनाने एवं अपने देश के विकास की बातें हृदय से कहना इसका सकारात्मक पक्ष है । खुशी के पर्व दीवाली पर सामाजिक समरसता व बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश है । सरोवर किनारे प्यासे कंठों से हम दुनिया की धर्मशाला में पड़ाव डालते हैं –
 ’ हम सभी यहाँ के मुसाफ़िर हैं, दुनिया है एक धर्मशाला
आया  है सो जाएगा , यहाँ  दो  दिन  का है मेला ॥’
      इस संकलन के द्वारा कवयित्री ने जीवन – प्रकृति के काव्यात्मक अनुभव प्राप्त कर उसे समाज तक पहुँचाने का रचनाकार धर्म का पालन किया है । निश्चित ही , आपकी सृजनशीलता को एक नया आयाम प्राप्त हुआ है ।
’ मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ---॥’
 
                              डा० रमेश कुमार सोनी
( राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक व साहित्यकार )
बसना (छ० ग० ) - ४९३५५४

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