सौम्य को बाहर निकालकर , प्रलय केतु फहराता
सुख किसे कहते हैं , मैं नहीं जानता
किसी ने कहा , तुम अपनी खुली आँखों से
कैसे देख पावोगे इसे,यह ज्योतिरिंगन नहीं होता
यह तो दिन भर ऊँची -ऊँची पर्वतों की गहरी
खाइयों में , कंदराओं में जाकर सोया रहता
तरु-पत्तियों की शीतल छाँह में छुपा रहता
रातों को सपनोंमें चंचल अश्व बन दौड़ता
जगने पर आँखों में असंतोष बन दंशन देता
वायु में , आलोक ज्यों संचरण करता, त्यों
अदृश्य होकर धरा पर सुख घूमता रहता
और एक दिन रवि किरणों संग आँगन में जब
आ दमकता,भौं-केश आप हीआप हिलने लगता
मगर सुख शब्द के अंतिम अक्षर काउच्चारण
करने के पहले ही शब्दों का भाव उतर जाता
प्राणों का संचित अग्नि उधम मचाने लगता
चिनगारी बन कपोलों पर, जिह्वा पर ,चटकने लगता
उसकी इस आग की लौ ,औरों के वक्ष को जलाती
अपने अंक में भरकर , तप्त चुम्बन करता
न ही नोचता, न ही फाड़ता , न ही कोई कलह करता
मगर चाहता , डूबे रहे इस अनल दहन में उसका
गर्दन तक, जो जीवन हरियाली का बंदन करता
मन के स्वर्ग की नीव हिला देनेवाला , यह सुख
मानव हृदय में घुसकर अग्नि- चंड सा जलता रहता
घन-घमंड को हाँक-हाँककर,जाने कहाँ-कहाँ से लाता
उर का मुंद्रित कपाट खोलकर स्वच्छ , शीतल
सौम्य कोबाहर निकालकर , प्रलयकेतु फहराता
जीवन को निद्रा से बाँधकर , निर्मम आघात करता
सौम्य कुलका यह सुख , अपनी मायाजाल में फ़ँसाकर
मनुज मन को खींचकर , विरक्ति की ओर ले जाता
भाग्य पर तीखा व्यंग्य कर , नियति का उपहास उड़ाता
हृदय तंत्री के तारों को तोड़कर, जीवन का अंतिम गान सुनाता
कल्पना के वीहड़ पथ परचला-चलाकर,मन को इतना थका देता
कि हृदय से आत्मा निर्वासित होकर जीना चाहता
जीवन का चिर - चिंतक मनुज , यहभूल जाता
जीवन का सुख – विराम छीननेवाला, यह सुख
जीवन -नद में पीड़ा के तरंग उठाकर, खुद
अभिलाषाओं के शैल -शृंग पर जा बैठता
अभिलषित वस्तु तो दूर ही रहता, अनिच्छित
समस्या आकर खड़ी हो जाती, जो हृदय को
जड़ बना देता, कुछ भी पास नहीं, सब दूर रखता
और एक दिन मनुज अपनाज्वलंतशील अंतर लिये
छोड़कर संचित संवेदन का भारपुंज,शून्यमें खो जाता
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