Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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स्मृति लौट आई है

 


स्मृति लौट आई है 

 

                               भाग्य के विश्रृंखल पवन ने , माधव की जिंदगी के हिसाब के पन्नों को, जगत के आँचल पर, जब तितर-वितर कर दिया , वह टूट गया | स्नेह छवि की पूजा के लिए नित्य नए-नए उपकरण जुटाने वाला माधव ,मन तूलिका को ह्रदय-रक्त में डुबो-डुबोकर , जड़ होकर बाह्य दृश्य की अनेक आकृतियों को विकृतियों में स्थायी रूप से बदलने लगा | बीत रहे रजनी की काली छाया में अपनी दुःख-गाथा को अतीत की गर्वशाली निशा की सुख-कथा संग मिलाकर कुछ कहने लगा | उसके ह्रदय की अव्यक्त ध्वनि सार्थक हो, उसने स्मृति को कलेजा फाड़ देने वाली करुण आवाज से पुकारा , पागलों की तरह चिल्लाकर कहा ---- स्मृति आज मुझे तुम्हारी जरूरत है, तुम लौट आओ, मेरे पास | मैं अपनी जिंदगी के पन्ने-पन्ने को उलट रहा हूँ , हर नजर आखों के सामने नाच रहा है, लेकिन जब हिसाब जोड़ता हूँ , हर बार मात खा जाता हूँ ; अब तुम्हारे बगैर इसे कौन सुलझाएगा ?

                   एक दिन स्मृति काँपती हुई माधव के पास आकर खड़ी हुई | माधव का स्मृति से सामना लगभग 10 साल बाद हुआ था | अब वह बूढी हो चुकी थी , नजरें मोटी और दिमाग कमजोर हो गई थी ; उसने माधव द्वारा बनाए चित्र को बहुत देर निहारा , फिर बोली ----- माधव ! यह क्या, तुमने सुंदर-सुंदर इन आकृतियों को काला रंग डालकर बदरंग क्यों कर दिया , पहले वाला ही अच्छा था | इसे उसी तरह छोड़ दो , इन काले रंगों को हटा दो |

स्मृति की बात सुनकर माधव का मुख भयानक हो उठा, उसने रोते हुए कहा ---मेरी जिंदगी का हिसाब जिन पन्नों में था , वह खो गया | जवानी , कुछ याद है, ज्यादा भूल गया | तुमको उन पन्नों की बातों को याद कराने बुलाया है | मैं जानता हूँ , ये आकृतियाँ कुरूप हो गई हैं , लेकिन एक चित्रकार जब चित्र बनाने बैठता है, तब वर्त्तमान को अधिक पसंद करता है | सूरज की तपती धूप में झुलसता आदमी हिमानी मंडित उपत्यका में वसंत की फूली हुई वल्लरी पर मध्याह्न का आतप अपनी सुखद कांति बरसा रहा है ; ऐसा न कह सकता है, न बना सकता है | स्मृति !  समाज से डरो नहीं, अत्याचारी समाज, पाप शब्द कानों पर हाथ रखकर चिल्लाता है , वह पाप शब्द दूसरों को सुनाई पड़ता है , जबकि वह स्वयं नहीं सुनता | ऐसे लोग समाज को भ्रान्ति में रखना चाहते हैं | संपन्न अवस्था के विकास का रंग ,अभाव के रंग को नहीं सह सकता |

                  स्मृति का जब ध्यान टूटा , देखी ---सचमुच माधव, उसके आश्रम में आश्रय माँग रहा था | अपने जीवन के लघुदीप को अनंत की धारा में बहाने आतुर बैठा माधव, जीवन का हिसाब ही तो माँगता है | अपनों और संसार के विश्वासघात की ठोकरों ने इसे विक्षिप्त बना दिया है | इसके मानसिक विप्लवों में मेरी सहायता की इसे सख्त जरूरत है |

स्मृति ने माधव से नम्रतापूर्वक कहा--- इसकी चिंता तुम छोड़ दो , तुमने बुरे कामों के लिए अपने त्याग, तपस्या की पूँजी को नहीं उड़ाया , बल्कि इससे कुल की कृति फैली है | 

माधव, अत्यंत विनति भरे स्वर में कहा--- माना कि तुम्हारी बात ही सही है , लेकिन हिसाब मिलता क्यों नहीं है ? जब भी हिसाब लेकर बैठता हूँ | लोगों से सूद की एक कौड़ी नहीं छोड़ने वाला माधव , आज उसी हिसाब को करने में , कुछ याद आता है, ज्यादा भूल जाता है, तब थक-हार कर रोने क्यों बैठ जाता है ?

स्मृति रुंधे कंठ से गद-गद होकर बोली --- वो इसलिए कि वहाँ रोटी आकर तुम्हारे समक्ष खड़ी रहती थी, यहाँ अपने खड़े रहते हैं और अपनों को दिया ऋण ,आदमी कभी लौटा नहीं पाया | 

माधव ने सजल और दीनता भरी आँखों से स्मृति को देखा , और हाथ जोड़कर कहा---- इसलिए मैंने तुमको बुलाया है, मेरा हिसाब तुम्हारे सिवा कोई नहीं कर सकता |

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