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Dr. Srimati Tara Singh
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स्मृतिशेष

 

स्मृतिशेष


        लाला अमरकांत की जिंदगी के सारे मनसूबे तब धूल में मिल गये , जब एक दिन मीरा अचानक दुनिया में उनको अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गई । पत्नी महुआ तो पहले ही भगवान को प्यारी हो चुकी थी ; बची-खुची जिंदगी की खुशियाँ मीरा अपने साथ समेट ले गई । वे चाहते तो, जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर गृहस्वामी न बनकर किसी मंदिर का पुजारी बन जाते , और रही-सही जिंदगी, ईश्वर के कीर्तन-भजन में गुजार देते, लेकिन उनकी सोच अलग थी । वे परिवार में रहकर सन्यासी जीवन बिताने में विश्वास रखते थे । किसी भी हाल में बिना स्नान किये मुँह में पानी तक नहीं डालते थे । अस्सी वर्ष में शायद ही ऐसा कोई दिन रहा हो, जिस दिन उन्होंने संध्या समय काली आरती न की हो, और तुलसी दल माथे से न लगाया हो । उनका कहना था, सेवा-धर्म ,घर में रहकर जब किया जा सकता है , तो उसके लिए घर त्यागने की क्या जरूरत है, लेकिन जब से मीरा का स्वर्गवास हुआ, तब से अमरकांत को घर काटने लगा । वे खाने-नहाने भर के लिए , घर में प्रवेश करते, बाकी समय देवालय के चबूतरे पर बैठे, उस राह की तरफ़ टक लगाये रहते थे, जिस राह से मीरा अपनी अंतिम यात्रा पर निकली थी । अमरकांत को आज भी लगता है, कि मीरा शाम तक घर लौट आयेगी ।

         लाला का इस तरह मन मारकर बैठे रहना, उसके दोस्त बैजू को अच्छा नहीं लगता था, उसे दया आ गई । उसने लाला से कहा ---- देखो, लाला यह दुनिया आनी-जानी है, यहाँ कोई रहने नहीं आया है । जो आया है, वह जायगा । कल तुमको और हमको भी 



जाना है, इसलिए मीरा को अब भूलने की कोशिश करो । दोस्त की बात सुनकर , लाला का जमा प्यार पिघल गया । उसके आँखों से टप-टपकर आँसू गिरने लगे , रोते-रोते हिचकी बँध गई । फ़िर सिसक-सिसककर बोले---- अभी उमर ही क्या थी उसकी ? पहले पत्नी, फ़िर मीरा; इस तरह ईश्वर ने दोहरी सजा दी है मुझको । फ़िर कातर नयन से दोस्त बैजू की तरफ़ देखते हुए कहा --- आखिर ऐसा मेरे साथ ही होता क्यों है ? मैं जिसे चाहता हूँ, उसे ही भगवान मुझसे छीन क्यों लेता है ? बैजू ने भी लाला की बातों का समर्थन करते हुए कहा ---- तुम्हारी बात सही है , लेकिन उसके सामने किसी का वश नहीं चला है ; सामने हो तो, पूछा भी जाय , लेकिन वह तो जिन बीहड़ कंदराओं और गुफ़ाओं में छुपा बैठा है, वहाँ पहुँचने के लिए आदमी को पहले मरना पड़ता है । जीते जी, उससे मिलना असंभव है । इसलिए उठो, चलो; इस तरह कल्पना के सागर में मन को गोते रहना ठीक नहीं है । 

        तभी लाला का नौकर आकर बैजू से बताया---मालिक, रात को भी सोते नहीं हैं, जब भी उन्हें मीरा की याद आती है, उसके प्यार के उमड़ते बहाव को रोकने के लिए उदास होकर कुछ- कुछ गुनगुनाने लगते हैं और अपने ही शब्दों में दुकेले होने की कल्पना करते हैं । तब उनकी मनोव्यथा मुझसे देखी नहीं जाती है ।

बैजू ,रामू के मुँह की ओर ताकते हुए पूछा---रामू, मीरा को हुआ क्या था ?

रामू, कातर होकर कहा--- हुआ कुछ भी नहीं था । रोज रात की तरह, उस रोज भी वह दरवाजे पर मालिक के साथ खेलकर रात आठ 


बजे घर आई थी । मालिक के साथ खाना खाई , फ़िर एक ही बिस्तर पर वह और मालिक, एक ही कम्बल में सो गये , जैसा कि हर रोज दोनों सोया करते थे । 

बैजू, रामू को बीच में ही टोकते हुए अचंभित हो पूछा---क्या बोला तू, वह लाला के साथ खाती थी और रात को एक ही बिस्तर पर सोती थी ।

रामू, अपनी छाती पर हाथ रखता हुआ, कहा--- हाँ, मैं सच कह रहा हूँ । मीरा जब से यहाँ आई ,तब से कभी अकेले खाना नहीं खाई । न ही अकेले सोई, लेकिन यह बात दादीजी नहीं जानती थीं ; न ही घर के और कोई सदस्य  । यह तो सिर्फ़ मैं और मालिक जानते हैं । इसलिए आप धीरे-धीरे बोलिये, कोई सुन लेगा , तो लोग नाना बातें करेंगे ।

बैजू सोचने लगा--- जहाँ लोग अपने बेटे के साथ भी सोने से कतराते हैं, वहाँ एक जानवर ( बकरी के बच्चे ) के साथ ? अजीब आदमी है लाला, फ़िर मन ही मन कहा-----इतना अच्छा इन्सान होना भी ठीक नहीं ।

बैजू चारपाई पर से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा---रामू हाँ , तो दोनों सो गये, उसके बाद क्या हुआ ? उसका हठात इस कदर चले जाने का कारण पता चला ?

बैजू की बात सुनकर रामू ,सिसक उठा । उसका शून्य हृदय कातर हो उठा, उसकी आँखें छलक आईं । उसने लाला-अमरकांत की ओर देखते हुए भर्राई आवाज में कहा – हाँ, उसे साँप काट लिया था । यह कहकर वह चुप हो गया , मानो उसकी आँखों के आगे पूर्व कथा 



विस्मृत होकर,अंधकार बन खड़ी हो गई हो और वह उस अंधेरे में खो गया हो । 

तभी स्वर –सन्नाटे को चीरती हुई , समरलाल की आवाज आई --- बैजू, उसे देखना चाहोगे ?

बैजू, अचंभित होता हुआ बोला – हाँ क्यों नहीं, मगर कैसे ?

लाला अमरकांत , अपनी कमीज के पॉकेट से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर बैजू की ओर बढ़ाते हुए कहा---इसे पकड़ो  ।

बैजू, लिफ़ाफ़े को अपने हाथ में लेते हुए पूछा--- इसमें क्या है ? 

लाला अमरकांत, रुआँसा हो बोला --- ’स्मृतिशेष’


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