सुनहली किरणें चूमती पुष्प-पत्रों का जब अधर
जबदेखतीहूँ, किरणें सुनहली
चूमती , पुष्प-पत्रों का अधर
प्रतिबिंबित हो उठती छवि तुम्हारी
मन के दर्पण में रंजित होकर
वृष्टि शून्य, नवस्नात-सा आलस
उनींदा लगने लगता जग
तुम्हारे बिना बिखर-बिखर जाता
उर तंत्री से उठे, मधुर गीतों का स्वर
मैं ही नहीं ,प्रकृति भी नित्य आनन्दमयी है
तभी तोवह भी नक्षत्रों से, नील गगन से
सरिताओं से, लता पत्र की हरियालियॉं से
सबों से प्यार करती है, सुखासीन रहती है
स्वयं वसुधा भी यौवनके शलथ आवेग को
पाती नहीं संभाल , उसके हूदय शिराओं के
कंपन से कँपित रहती, तरु पुष्पों की डाल
जिससे कि लुढक - लुढक जाते ओस कण
कुसुमों के अर्धखुले नयनों से कर पाते नहीं प्यार
सावन की बूँदें, टपकतीं जब धरती की प्यास
बुझाने ,मेरा आँचल आँसुओंसे तर हो जाता
हृदय से जलनिधि उछलकर मर्यादा सेबाहर
होकर अश्रु बनबहने लगता, दिल कहता
जिसकी आँखों में बंदी आज भी हूँ मैं,काश कि
एक बार वह मेरे नयन महोत्सव का प्रतीक बनकर
अम्लान नलिन की माल लेकर, सुस्मित-सा
बिखराता, गुंजरित मधुप - सा, मुकुल सदृश मेरे
पास आता, मुझे गले से लगाकर अपनी आस्था-
प्रीति मुझको अर्पित कर, मुझसे कहता, प्रिये !
तुम आदेश करो तो आकाश को फोड़कर, उस
वासव देश को लूटकर, तुम्हारे चरणों पर रख दूँ
तुम्हारा साथ मिले तो मृत्यु करों में पड़कर भी न मरूँ
सोचती हूँ बैठकर, मनुज हृदय में क्षुब्ध सिंधु -सा
आन्दोलित यौवन को बनाकर ईश्वर ने क्यों भरा
जो हृदय सरित गति से,विरुद्ध तिरता रहता मन को
गुह्य सूत्रों से बाँधकर रखता , प्राण और मन को
कितना अच्छा होता, भावहीन , जन प्राणहीन होता
पिक चातक का हृदय मादक पुकार को सुनकर
प्रणय स्मृति से विचलित न होता, अभिमान भरी
आँखों में मजधार न दीखता,संसारकगार सदृश दीखता
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