Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तब क्षार देगा मेरा पता

 

निज जीवन रसभाग लेकर जिसे पाला
सजग दृष्टि ने क्षण–क्षण जिसे संभाला
आज वही रसभागी मुझसे पूछ रहा
स्वजन स्वर्ण होता है क्या
मर्म प्रीति का झरना बहता कहाँ
शिशिर शयित जग में, मैंने नहीं जाना

 

 

पता कहाँ था ,जिसको अपना कह
मैं होती हूँ इतनी गर्वित, कि
सूनेपन का जड़ भी हो जाता कुसुमित
वही, जब आयेगी ,यग्य समाप्ति की वेला
तब वेदी की प्रसन्नता के लिए माँगेगा
मुझसे, रुधिर के छींटे,अस्थि-खंड की माला

 

 

बीते दिनों को कर याद ,मन हो जाता बोझिल
नयन क्षितिज को पारकर अश्रु बरसाती
निर्झरिणी बन ध्वनि तरंगिणी संग मिल जाती
सोच कैसे मैं तारुण्य को संध्या के पंकजल से
नहलाया करती थी, एक पल विश्राम नहीं था
देख अंधियाली में भावी की, घोर घटा काली
मन की कचोट पिघलकर गीत बन जाती थी
नभ पुंज से आती थी आवाज,संभल जाओ,नाच रही
घिरनी पर,अम्बर का विराट परिवर्तन है होने वाला
पारिजात द्रुम के फ़ूलों में भी होती है आग
विधि का विधान तुम्हारे लिए नहीं है बदलने वाला

 


जिसके होने की कर मात्र कल्पना से,बाँहों में
भविष्यत के बिखरे,सारे सपनों को समेटकर
मैं अपने मन अनुकूल बना लिया करती थी
जिसकी सुखास्मृति हृदय जलधि की लहरियाँ
अँगराई बन, रातों को सोने नहीं देती थीं
वही लेकर एक दिन सिंधु का बिस्तार
मेरे जीवन के लघु दीप को बुझा देगा
तब क्षार देगा मेरा पता,कहाँ सोच पाई थी
नभ की बनती- बिगड़ती आकृतियों में
उसकी ही मुखाकृति उभरती थी
मन आकाश में,तारे बन आलाप करती थी
मन ही मन देख उसे,मैं सोचा करती थी
आखिर इस सुख का स्रोत कहाँ है
जो नित मुझमें सौन्दर्य सृजन करता है
मेरे सपनों के गतिहीन विमान को
समुद्र तुंग पार कर व्योम तक ले जाता है
मगर निष्ठुर भाग्य ने बताया कहाँ
गतिहीन विमान के ऊपर जो
सुख सुंदर स्वर्णजाल सा, फ़हर रहा
और कुछ नहीं,नितांत भ्रांति है तुम्हारा
अब छट गया मोह अमृत की धारा से
समझ गई मैं, मिलता नहीं किसी को
ज्यादा, कम अपने हाथों की रेखा से

 

 

यहाँ सब को अपनी- अपनी पड़ी है
भयावहता विभीत है निज भैरवता से
बदल रहा रिश्ते का अर्थ, झुलस रहे
लोग अपने ही तन के तप्त भभूके से
धर्म नीति ,आदर्श निखिल म्रियमाण पड़े हैं
ऐंठ रहा तन,मिथ्या के अभिमान गर्विता से

 

 

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

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