मेरी मधुरिमा के मधुर अवतार
जो मैं जान पाती एक बार
रत्न विभूषित अम्बर में तुम रहते
कहाँ, कौन पथ जाता तुम्हारी ओर
उस पथ को अपने अश्रुजल से पखार
कर देती अपना जीवन उस पर वार
वहाँ पहुँचकर हम दोनों, नभ सागर के
अंतस्थल में, मीन से छिपकर रहते
सुख - दुख का सुधा - गरल एक
दूजे के गले मिलकर हम पीते
सूरज – चाँद - तारे, किसी से कभी
नहीं करते हम तकरार
ओस–कण में है रजनी का रुदन
क्यों नहीं समझ पाता निष्ठुर संसार
चमक रहे शिशिर बूँदों में
रवि ताप को हम मिलकर सहते
भावना की रेखाओं में कभी नहीं बँधते
जब कुपित काल के धीर को निज
भाग्य पर टूटते देखते, विधि का
विधान यही है मान, खिन्न थकी
हाथों का बनाकर उपधान
शापित जीवन के कंकाल को टटोलते
मगर,अकेले कैसे उठाऊँ जीवन का यहाँ भार
इक तुम्हारे जाने से टूट- टूटकर बिखर गये
मेरी बड़ी- बड़ी आशाओं के छोटे-छोटे भंडार
अश्रु सलिल अभिषेक भी मिटा नहीं सका
मेरे धधकते प्राण का ताप
रोम - रोम से झड़ता रहता अंगार
जग स्पंदन के सारे विष को पीकर भी
यहाँ बुझती नहीं, मेरे हृदय की प्यास
विरह ज्वाला की अग्नि में पिघल-पिघलकर
उर कोषों का मोती,आँखों में भर आता बार-बार
समझ में नहीं आता, नियति का मुझ संग नाता
मुक्ति है या बंधन, या फ़िर मौत का व्यापार
रातों को तम के अणु- अणु में
व्योम से उतरकर भूमि पर
चमकती जब तस्वीर तुम्हारी
नींद टूट जाती ,प्राण- दीपक बल उठते
कुसुम कुंज बन जाता मेरा शयनागार
सब्र के बाँध सभी तब टूट जाते मेरे
जब देखती अयस्कांत ले खींच अयस को
बाँहों में भर , कर रहा दुलार
डा० श्रीमती तारा सिंह
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