वहीं है शास्वत शोभा का उपवन
निशि जुगनू प्रात:, सो जाता जब चुपचाप
तब जगत उपवन के छायावन में, भावों का
आधार बनकर ढूँढती हूँ मैं उसका छायाभास
जिसके लिए कौतुकता का क्रीड़ागार बना रहता
मनुज का यह लघु जीवन,जहाँ प्यासा, प्यासा
ही रह जाता, तृष्णा को मिलता नहीं चैन
जिन रंगों से खेली फ़ूलों की डाली
खोजकर भी नहीं मिलती, कहीं वह गाँठ
फ़िर भी हृदय में रहती उसके लिए श्रद्धा भरी हुई
प्रति पग रहता कंपन भरा हुआ,मन में रहता मान
सोचती हूँ,कौन है वह ,जिसके लिए ज्वालामुखी
माधवी रजनी में भी अचेत जीता,रहता अशांत
किरणों की काया में उषा नित क्षितिज की
श्याम पटि पर उदित होती, डाली से भीत पंक्षी
गिर—गिर पड़ते, भुजंगम मुग्ध हो नर्त्तन करता
उन्मुक्त शिखर हँसते, रोता निर्वासित अशांत
किसके नि:श्वासों की माया से वायु छन–छन कर
प्राणों की छाया बनती, किसे लुभाने सभी चंचल
सौन्दर्यमयी कृतियाँ रहस्य बनकर नाचती रहतीं
किसको सुनने ध्वनि सहसा हो जाती शांत
कौन है,वह जो सुनाता संचित कर पत्रों के अस्फ़ुट
अधरों से सुख -दुख के मधुर गान
मैं तो इतना जानती,रिमझिम बरसाता जो
अम्बर से शत धूप-छाँह ,सुरधनु के रंग
वहीं रहते शिशिर निदाघ भी संग– सग
वहीं है वह , शास्वत शोभा का उपवन
जहाँ सुषमा की पँखुड़ियाँ खुलतीं
चन्द्र विभा का चेतना- ज्वाल चूकर
जगत प्राणियों के प्राण को शीतल करता
जीवन के तम को स्वर्णिम कर, नहलाकर
उसके मनोभावों में स्वर्ग–दूतों को बाँधकर
जग जीवन को नित बनाता अपना अंग
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