वहाँ फूल कम, काँटे अधिक थे
रेशमा अपने माता-पिता, दोनों का प्राणाधार थी| दोनों की ही सर्वोच्च सांसारिक अभिलाषा थी कि उनकी बेटी को एक अच्छा घर मिले, सास-ससुर देवी-देवता तुल्य हों, पति शिष्टता की मूर्ति, और श्रीराम की भाँति सुंदर, सुशील हो; कभी उस पर कष्ट की छाया न पड़े| रेशमा को यूँ तो घर के काम-धंधे से कोई प्रयोजन नहीं था, पर पढ़ने-लिखने में बड़ी कुशाग्र बुद्धि की थी| माँ कलावती, उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती, तो पिता हर्ष से फूला नहीं समाता| इसी तरह समय बीतता गया, रेशमा अठारह साल की हो गई, फिर भी वह खाना बनाना नहीं जानती थी| जानती भी कैसे, उसके माता-पिता लाखों मंदिर,मस्जिद, गुरुद्वारे में सर पटकने के बाद जो उसे पाया था|
मरण पर्यंत आँखों से रेशमा ओझल न हो, दीनदयाल, रेशमा की शादी, पास के गाँव के ही किसान, विष्णुदेव के बेटे प्रतापचन्द्र के साथ काफी धूमधाम से दिए| अपने हाथों दीनदयाल बाबू, रेशमा को डोली में बिठाए, और विदा किये| यह कहकर कि बेटी, आज से वही घर, तुम्हारा अपना घर होगा| अब तक तुम यहाँ अतिथि थी, और अतिथि को एक दिन जाना होता है| मगर सब मनोरथ, शीघ्र ही मिट्टी में मिल गए| जब एक दिन पौष महीने के हाड़ कँपा देने वाली रात, जब लोग गरम कपड़े में लिपटे, अपने-अपने घरों में पड़े सो रहे थे , दीनदयाल के कानों में किसी स्त्री के रोने की आवाज गई| वे घबडाकर उठ बैठे और पत्नी सुशीला को जगाकर, काँपते स्वर में बोले---- सुशीला! लगता है अपने दरवाजे पर कोई औरत रो रही है!
सुशीला, पति की बात सुनकर सन्नाटे में आ गई| वह कुछ मिनट, उस रोने की आवाज को सुनी, और तत्क्षण चिल्लाती हुई दरवाजे की ओर दौड़ पड़ी| पीछे-पीछे दीनदयाल दौड़े, यह जानने, कि बात क्या है? दरवाजे पर आकर दोनों ने जो कुछ देखा, उनके होश उड़ गए! ऐसे तो दीनदयाल बड़े गंभीर प्रकृति के मनुष्य थे, उनमें शुद्ध संकल्प की भी कमी नहीं थी| झोकों में न उनके पैर उखड़ते थे, न ही कठिनाइयों में उनकी हिम्मत टूटती थी| उन्होंने देखा, उनकी नवविवाहिता बेटी रेशमा, जिसे ससुराल विदा किये, महीना भी नहीं बीता, वह घर लौट आई है| उसके बाल खुले हैं, देह सूजा हुआ है| साड़ी पर लहू के दाग, सूखकर कत्थई हो गए हैं| दीनदयाल समझ गए, इस पर किसी ने अत्याचार किया है| उनकी आँखों में आँसू उतर आये; हिंसा भावना मन में प्रचंड हो उठी| उन्होंने, रोते हुए, ऊपर आकाश की ओर देखा, कहा---- प्रभु! तुम अन्तर्यामी हो, सर्वशक्तिमान, तुम्हारे होते, इस नि:सहाय पर किसने इतना अत्याचार किया? तुम जो नहीं चाहते तो, यह सब, वह नर-पिशाच नहीं कर सकता| क्या तुम्हारी पहुँच उस तक नहीं है, या किसी पर अत्याचार होता देख, तुमको आनन्द मिलता है? जो तुमको धरती तक की खबर नहीं, तो तुमने धरती को रचा क्यों? धिक्कार है तुमको, अगर रचा भी तो मानव शून्य क्यों नहीं बनाया?
मेरे जीवन की समस्त अभिलाषाएँ मिट्टी में मिल गईं| हाँ हतभाग्य! मैं अपने को कितना खुशनसीब समझता था| आज इस संसार में मुझसे ज्यादा बदनसीब और कोई नहीं होगा| जिस प्रेम-लता को मुद्दतों से पाला था, अश्रुजल से सींचा था, उसका किसी के पैरों तले रौंदा जाना, मैं देख नहीं सकता| जिसके सहारे रेशमा की जीवन-लता को पल्लवित होता देखने का मैं अरमान सजाये बैठा था, उसी ने इसे, निर्दयता के साथ, अपने पैरों तले मसल दिया| हाँ ईश्वर! मेरे साथ यह कैसी विकट समस्या तुमने खड़ी कर दी, कि आज मुझे मरने तक की भी स्वाधीनता नहीं? अब तो इस अभागिनी को जीवित रखने के लिए, मुझे ज़िंदा रहना होगा|
थोड़ी देर बाद जब दीनदयाल के पास क्रोध की जगह केवल नैराश्य बचा रह गया, तब वे उठे और बेटी रेशमा को अपने सीने से लगाकर, फबक-फबककर रोते हुए बोले---- बेटी! मुझे कभी माफ़ मत करना, मैं तुम्हारा दोषी हूँ| मैंने ही तुझे उस कसाई के घर डोली में चढ़ाकर विदा किया था, और कहा था---- बेटी! तुम जिस घर जा रही हो, आज से वही तुम्हारा अपना घर होगा| यहाँ तुम अतिथि हो, और अतिथि को एक दिन अपने घर लौट जाना पड़ता है| कहते-कहते दीनदयाल पीड़ा से कराह उठे, और अपनी छाती को दोनों हाथों पकड़े हुए बोले---- मुझे बताया गया, प्रतापचन्द्र के पिता, अर्थात तुम्हारे श्वसुर विष्णुदेव जी, वेदान्तीय सिद्धांतों को माननेवाले एक सच्चे इंसान हैं|
सास प्रेमसुधा से अभिसिंचित रहनेवाली, गंगा की तरह विशाल ह्रदय वाली है, जहाँ सिर्फ करुणा की धारा बहती है और पति प्रतापचन्द्र, मत पूछो, जैसा नाम वैसा उनमें गुण भी है| अत्यंत प्रतिभाशाली और सुंदर बातें करता है| मुखमंडल इतना दिव्य और ज्ञानमय, कि देखनेवाले देखते रह जायें| बावजूद जब तक तुम्हारी माँ इस शादी से सहमत नहीं हुई, तब तक मैंने शादी की स्वीकृति नहीं दी, मगर प्रतापचन्द्र के पिता की आँखों को अश्रुपूर्ण देखकर, मैं ना न कर सका|
मुझे क्या पता, वंश-प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव का अभिमानी यह परिवार, इतना पाषाणह्रदय, स्नेहहीन और निर्दयी है, कि देवमूर्ति को भी तोड़ सकता है| कुल-मर्यादा जो संसार में सबसे उत्तम चीज है, जिस पर लोग प्राण तक न्यौछावर कर देते हैं, उसे भी छोड़ सकता है?
रेशमा उस पक्षी की तरह, जिसका पंख काटकर, मालिक ने पिंजड़े से निकालकर भगा दिया हो, लाचार गुमसुम अपने पिता दीनदयाल की तरफ वेदना भरी निगाह से निहार रही थी, मानो पूछ रही हो, अब आगे क्या? उस चितवन में वेदना अधिक थी, या भर्त्सना, यह कहना कठिन था|
दीनदयाल अप्रतिभ होकर कहे---- बेटा! तोते से अधिक निठुर जीव और कोई नहीं होता, फिर भी लोग रूप और वाणी पर मोहित होकर उसे पालते हैं| मेरे लिए प्रतापचन्द्र के परिवार भी तोते के सामान थे| उसके नाम, प्रतिष्ठा पर मोहित होकर मैंने तुम्हारा ब्याह अनजाने में उस परिवार में कर दिया , जहाँ फूल कम, काँटे अधिक थे|
रेशमा, पिता की बातें सुनकर व्यथित कंठ से कही---- पिताजी! जिस घर को आपने मेरा घर, बोलकर विदा किया था, वहाँ कोई मुझे पहचानने तक के लिए तैयार नहीं था, स्वयं प्रतापचन्द्र भी नहीं| कहते-कहते उसकी जुबान बंद हो गई, और आँखों से आँसू बह गए| उसने दोनों हाथों , आँसू को पोछते हुए, कहा---- जिस रोज मैं वहाँ गई, उस दिन रात को आँखें लाल किये, उन्मत्त की भाँति मेरे कमरे में आये| जैसे कोई प्यादा, आसामी से महाजन के रूपये वसूल करने जाए, और मेरा घूँघट, खींचकर हटाते हुए बोले---- मैं तुम्हारा घूँघट देखने नहीं आया हूँ, और न ही मुझे यह ढकोसला पसंद है| यहाँ गुड़वा- गुड़िया का कोई खेल नहीं चल रहा है|
करीब आओ, मेरा स्वागत करो, अगर जो तुमको मेरा मुँह देखना पसंद नहीं तो, क्या मैं तुम्हारा थोबड़ा देखने के लिए मरा जा रहा हूँ| उनकी इस तरह की उटपटांग बातें सुनकर, मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे, और वे कमरे से निकलकर कहीं और सोने चले गए आप जिस आदमी को शिष्टता की मूर्ति और श्रीराम की तरह सुशील बता रहे थे, उन्हें तो नैतिक बंधन का भी सम्मान करने नहीं आता है|
उनमें केवल मदान्धता है, अधिकार व गर्व है, और ह्रुदयहीन निर्लज्जता है| मैं श्रद्धा के थाल में, अपनी आत्मा का सारा अनुराग, सारा आनंद, सारा प्रेम उनके चरणों में समर्पित करने के लिए सजाये बैठी रही, और वे लात मारकर चल दिए| मेरा रोम-रोम, इस तिरस्कार से व्यथित हो उठा| मगर मैं कर ही क्या सकती थी? जहाँ अपील करना था, वही मेरे विमुख हैं, सोचकर मैं यहाँ आ गई| दीनदयाल गर्व भरे प्रेम से रेशमा की तरफ देखकर काँपते स्वर में पूछे ---- बेटा! घर छोड़ते समय तुम्हें किसी ने देखा नहीं?
रेशमा रोटी हुई बोली---- हाँ पिता जी! प्रतापचन्द्र की दादी ने देखा और रोकते हुए मुझसे कहा---- बेटा! अभी तुम्हारे भोग-विलास के दिन हैं| ऐसे में तुम घर छोड़कर तपस्विनी के वेष धारणकर कहाँ जा रही हो? तुम्हारे देह पर साबूत कपडे तक नहीं हैं| दुर्बलता के मारे पाँव सीधे नहीं पड़ रहे, ऐसे में तुम घर से मत निकलो| ज़माना बदल चुका है, लोग अपनी मर्यादा भूल चुके हैं| तभी मेरी सास चिल्लाती हुई आई, बोली---- माँ जी! जो जहाँ जाना चाहे, उसे जाने दीजिये| यह कोई दूध-पीती बच्ची है नहीं, जो इसे जमाने के रंग समझाने पड़ेंगे|
दीनदयाल आर्द्रकंठ से पूछे, और प्रतापचन्द्र, उन्होंने क्या कहा, वे तब कहाँ थे?
रेशमा सिसकती हुई बोली---- ‘’उन्होंने कहा---- याद रखो! नारी सिर्फ विलास की वस्तु होती है, और विलास पर प्रेम का निर्माण नहीं होता|
सुनकर दीनदयाल बिफर उठे, बोले---- लोग इतने घनिष्ठ बंधन में भी, कठोरता को बचाये रखते हैं| यह कहते दीनदयाल की दशा, चौवेया में आकाश से गिरते हुए जल-बिन्दुओं की जो होती है, वही थी|
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