Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वहाँ चेतना बहती काल के आदि रूप को छूकर

 

वहाँ चेतना बहती काल के आदि रूप को छूकर 


शक्ति अनश्वर, काल अश्व  को देखो

कैसे विश्वरथ को खींचे भागे जा

रहा है, अनिर्दिष्ट दिशा की ओर 

कहता है  मनुज मन के क्षितिज द्वार को

खोलकर करवाऊँगा मैं उससे परिचय 

जिसके गंध श्वास से सुरभित है अग - जग 

जिसका सोमरस पीकर , मत्त है अम्बर 

जो प्राणों में शंख फूँककर उठाता वेग , और

अंतरस को झंकृत कर कराता , जीवन को

आनंद , प्रेम , सौन्दर्य से बोध , मैं विश्व

रथ को खींचकर ले जा रहा हूँ उस ओर


यह धरा घृणा, द्वेष , स्पर्धा से कभी खाली नहीं, होनेवाली  

वहाँ एक छत्र के नीच शांति, सुख स्वातंत्र्य सभी हैं प्रतिष्ठित 

जो मानव को स्वर्णिम पावक से स्नान कराकर , मन को

करता दीपित जिससे आन्दोलित हो उठता सूक्ष्म भावों का

आसन , भावी स्वप्न होता मंजरित , जीवन होता सजाग , सभीत 

क्योंकि मनुज सत्य की मूर्ति है और जीवन का प्रतीक भी

इसलिए मैं इस विश्व को वसुधा के सागर से निकालकर 

किरणों के बंधन को काटकर , उन्मुक्त कराकर ले जा 

रहा हूँ, तममयी दिशा से दूर शुभ्र गगन की ओर 


यह धरती निस्तब्ध ,मौन,  अलस बनकर सोई रहती

आलोकमयी स्मृति चेतनता, हेमवती छाया बनकर

जगाने आती तो जगती नहीं, देख मनुज उदास

दुखी होकर खोजता फिरता उस  अरूप निकेतन को

जहाँ चेतना बहती काल के आदि रूप को छूकर 

भूत, वर्तमान, भविष्यत सभी रहते साथ मिलकर 

लेकिन वह अरूप निकेतन इस धरा पर बना कहाँ

वह तो बना है आसमां पर, धरती के ऊपर 

इसलिए धरती से उकताए मनुज को अमर प्रीति में

बाँधने ले जा रहा हूँ जनम - मरण के द्वार से बाहर 

जहां तापों की छाया से कलुषित मनुज अंतर को

स्वर्णिम कर से नहलाकर भरता चन्द्र विभा की शीतलता


मनुज अपने प्राणों की हरियाली को धरापर

मरु की निर्जल छायाओं सी काँपता देख 

प्रकाश से शक्ति खींचकर अंधकार को बढता देख 

सोचता जीवन परिधि से आगे बसती है ध्रुवतारा

क्यों न हम भी वहीं जाकर बस जाएँ , यहाँ व्यर्थ

प्रभुता के मद में डूबी रहती धरा, लेती न खोज हमारा

वहाँ दो कूलों के बीच सिमटकर बहती स्वर्ग गंगा

सुनकर प्राणों की करुण पुकार , चली आती छोड़ किनारा

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