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विद्यापति

 

विद्यापति


महामहोपाध्याय कवि विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था । इनका जन्म बिहार प्रांत के मिथिला के प्रसिद्ध पंडित कुल में कमतौल स्टेशन के पास , ग्राम बिस्पी में हुआ था । यहाँ आज भी वह टीला है, जहाँ कवि का जन्म हुआ था । ऐसी मान्यता है ,कि इस भूमि पर इस समृद्ध वंश का भवन था । कहते हैं, इनके पूर्वज संस्कृत के महा विद्वान थे । यही कारण है कि मिथिला के राजा, शिव सिंह उन्हें अपने राज्य में उच्च पदों पर प्रतिष्ठित कर रखे थे । ये विसरवार वंश के थे । पंजीप्रबंध के अनुसार इनके वंशज आज भी हैं । 

                     कहते हैं, मिथिला के राजा का सिंघासनारोहण 1408 में जब वे पचास साल के थे, तब हुआ था ; विद्यापति राजा से दो साल बड़े बड़े थे । इस तरह इनका जन्म 1350 में हुआ और इनका निधन  1507 के कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को गंगातट पर हुआ था । इन तिथियों का सठीक प्रमाण कहीं नहीं मिलता है, मगर बिहार –राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा पकाशित ’ पदावली ’ के संवाद-काव्य के अनुसार यही तिथि मान्य है ।

                     विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषाओं के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं । इन कृतियों का विवरण कुछ इस प्रकार है --------

  • कीतिलता---- अबहट्ठ भाषा में रचित काव्य, जिनमें महाराजा कीती सिंह का वर्णन हुआ है ।
  • कीति पताका ---- महाराज शिव सिंहदेव का यथोवर्णन
  • गोरख विषय-------- संस्कृत में मैथिली गीत
  •  भूपरिक्रमा ---- -- तीर्थयात्रा वर्णन
  •  पुरुष परीक्षा ------ ऐतिहासिक पुरुषों की कथा
  • लिखनावली ------- इसमें नियम-व्यवहार के पत्र हैं 
  •  शैव सर्वस्वसार ----शिव पूजा संबंधी विधि विधान
  •  शैव सर्वस्वार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह
  •   गंगा काव्यावलि --- गंगाभक्ति विषयक रचना
  • विभाग सार – दयाभाग विवेचन
  • दानवाक्यावली --- दान-विषयक, 

इस प्रकार और भी कृतियाँ इनके द्वारा रचित हैं ।

                 विद्यापति लौकिक कवि माने जाते हैं; कवियश: प्रार्थी और राज समाजसेवी थे । उनका नाम संत –महात्माओं की गिनती में नहीं आता । वे कालीदास आदि राज-कवियों की तरह ऐहिक भावों के शृंगारी कवि हैं । उनको मैथिली का अभिनय जयदेव ,का अवतरित रूप माना जाता है । उन्होंने गीत-गोविंद की शैली में मैथिली में शृंगार गीतों की परम्परा चलाई । शृंगार का रामराजत्व , राधाकृष्ण को नायिका और नायक के रूप में स्वीकार कर स्थापित किया । विद्यापति शिवभक्त थे , जिसका प्रमाण शिव-पूजा संबंधी उनके द्वारा लिखे शास्त्रों से मिलता है ।

           चानन  भेल  विसम  सर रे भूसन भेल भारी

           सपनहूँ  नहीं  हरि  आयल रे गोकुल गिरधारी  ।

           नई विद्यापति तन-मन दे, सुनु गुनमति नारी

           आजु आ ओत हरि गोकुल रे ,पथ चलु झटमारी ॥


कवि ने राधाकृष्ण के नाम को केवल अपने काव्य के लिए स्वीकारा था । उन्होंने लिखा है, वास्तव में वे शिवभक्त थे । उनकी ’पदावली” के आधार पर बंगला के आलोचकों के समान वैष्णव मानना एक भ्रम है । चैतन्य सम्प्रदाय में राधाकृष्ण का लीला-गान है, अत: बंगाल में विद्यापति का स्वागत ,कृष्ण-भक्तों के समान हुआ । ऐसी उनकी भक्ति कृष्ण के प्रति स्पष्ट रूप से कहीं व्यक्त नहीं हुई है । कवि जब तक जीवित रहे, उन्होंने शिव को अपना इष्टदेव माना । ऐसे तो मध्य-युग से ही हिन्दू प्राय: 


पंचदेवोपासक रहे हैं । सामान्य हिन्दू, शैव-वैष्णव – शाक्त सब एक साथ थे । आज भी कितने ही हिन्दू-वैष्णव घरों में रामनौवीं के दिन देवी पूजी जाती है , एक ही परिवार में जन्माष्टमी और शिवरात्रि, दोनों मनाये जाते हैं ।

               ऐसी स्थिति में विद्यापति अपने रचित शैव-ग्रन्थों में शैव हैं, तो राधाकृष्ण के लीला-गान रचयिता होने के कारण , कृष्ण भक्त होने का भी भ्रम होता है । विद्यापति को शृंगारी कवि का प्रथम स्थान प्राप्त है । संस्कृत ,’ गीत गोबिंद’ का रस  मैथिली जैसी ’देसिल बैना’ के पात्र में विद्यापति ने ही प्रथम पिलाया है । इस तरह विद्यापति की रचनाओं में आधुनिक भाषा के एक रूप का, मिथिला की देशभाषा की शक्ति और क्षमता का, मधुरिमा और व्यंजना का सुंदरतम रूप उनकी पदावली में ही मिलते हैं । विद्यापति , केवल मैथिली रचनाकार के रूप में नहीं बल्कि . किसी भी भाषा मंदिर के साहित्य में देव-तुल्य पूजे जायेंगे ।



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