व्यर्थ होगा अतल शून्य को छूने जाना
ऐसे तो मनुष्य ने मान लिया
स्वर्ग धरा से होता श्रेष्ठ
कल्पना से बड़ा होता देह
मुख पर लिखी लकीरों
को पढ लेता स्नेह , मृत्यु
नहीं लगाती जीवन से स्नेह
मगर यह कहना मुश्किल होगा
पक्षी सुंदर है या उसकी पाँखें
आदमी का देह है सुंदर या उसकी आँखें
स्वर्ग उतर आए धरा पर् तो होगा सुंदर
या धरा चढ जाए अम्बर पर, तब होगा बेहतर
हरिश्चन्द्र सबसे बड़ा दानी था
या दानवीर था कर्ण् सीता
राम की भक्त थी, या
सबसे बड़ा भक्त था हनुमान
जहाँ निर्दिष्ट कर्तव्यों का ग्यान नहीं
वहाँ ध्रुव से कौन करेगा पहचान
मैं तो कहूँगी, छोड़ो निस्सीमता में
बिचरण करना, अंधेरे में बैठकर
अगर लाश दे रहा है कब्र को पहरा
तो इस नीरवता में खलल मत डालो तुम
इसे रहने दो अनजान, गोपन , गहरा
बल्कि खोलो अपने अंतर का पिंजर
झाँको निकलकर , त्वचा से बाहर
मर्त्य से उठकर, स्वर्ग तक देखो
दारुण सुंदर है वह अपरूप दिगम्बर
प्रलय-सृजन - पतझड़ लिए एक साथ
बिचरते अंधड़ गरजाते, सागर उफनाते
नियति के रथ से घर्र - घर्र की उठती
आवाज , फिर भी पुरातन को नित
नूतन करने अम्बर - अम्बर घूमते रहते
विधु स्वयं रहस्य ब्नकर समाया हुआ है
धरती के कण - कण में, हवाओं में
बीहड़ों में, खंदक - खाइयों में , इसलिए
व्यर्थ होगा अतल शून्य का तल - स्पर्श
करने जाना, किससे पूछोगे पहुँचकर
क्या ठीक होगा क्या होगा गलत, जरा बताना
जब कि नक्षत्र , गगन, सरिता, लता सभी मूक
पड़े हैं, सिर्फ माया से प्रेरित होकर जाग रहा अंधेरा
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