Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वह ओपहीन तो था

 

वह ओपहीन तो था ,भावरहित नहीं था


जिसकी किलक मेरे कानों में ,दिवा– रात्री रहती थी भरी

जिसे मैं  बाँहों में उठाकर , उर से लगा रखता  था संभाल

जिसका ध्यान मैं उन्निद्र पलों में भी रखता था संजोकर

उसकी आकृति ओपहीन तो थी ,मगर मेरे भावों से रहित

नहीं  थीवह  जागरण प्रात – सा  मेरे  संग हँसता था

शीतल  घन बनकर मेरी आँखों के साँचे  में ढलता था

आज  वह  मेरे  नयन  में  अनुपम  अनुराग  जगाकर

मुझसे  रूठकर  प्राची  के घरक्यों  चला  गया सहसा


वह तो पावँपावँ कर चलता हुआ,अपनी कोमल 

बाँहें फ़ैलाये गिरता,उठता,विहंसता,मुझे आलिंगन

में भरने  बढता  आ  रहा  था   मेरी  ओर

मेरे नयनों की घाटी में आकर,सपनों में बैठकर

मुझे  गले लगाकर नित  करता था किल्लोल

नयनों से बरसाकर अमृत,देखता था आँखें खोल

आज  अचानक मेरे जीवन में सिसकी भर कर

कहाँ छिप गया वह, लेकर मेरा सपना अनमोल


कहाँ है वह रस की कादंबिनी,जो अनंत गगन से 

विचरती हुई ,मुझ पर  प्रसन्न  होकर थी बरसी

जिसकी कोमल अंगड़ाई  की मादकता के सुगंध

से मेरा मन भू – अम्बरदोनों  तर हो गया था

ज्यों  पीयूष  पानकर  मृण्मयी  हो  जाती मही

इसे स्वप्न  मैं कैसे कहूँवह  तो आज भी सुप्ति 

और जागृति  के धूमिल  द्वाभ पर  रहती  खड़ी




किसका शाप,कहाँ की ज्वाला,किस क्षितिज 

को चीरकर तम,मेरे आँगन आकर छा गया

लुप्त हो  रहे मेरे दिशा- काल कोस्वरलय

होकर  ताल  दे  रहाजिसे  सुनकर मेरा

एकांत  जीवन ,  हिंडोले  सा  झूल  रहा

तट से  टकरा टकराकरओझल  हो रहा


तो  क्या  आज  मैं  यह  मान  लूँमेरे  ईश्वर

ये सब जो  हो रहे ,सभी  हैं मेरे  कर्मों का फ़ल

नहीं तो  तुमने एक पुत्रेच्छु  पिता से उसके पुत्र 

का मुख क्यों छुपाया  जब कि तुम भी जानते हो 

पिता के लिए पुत्र जनम एक अबाध उत्सव होता

तब कैसे  तुमने आकांक्षा  की तीव्र  पिपासा को

वारुणी  जल   से  बुझाने  अपना  वाण  साधा


तुमने  मेरे  चिर दग्ध  प्राण  को  सपनों  के

प्रणय अमर साधसे क्योंबाँधा

अंधकार  का  नील  आवरणप्रत्यक्ष  दृष्टि से

होता बड़ापहले क्यों नहीं  बतलाया 

मेरे प्रभु ,मेरे मालिकमुझे  इतना तो  है मालूम

कि पाप पुण्य  की  जननी,  यही  लोक  है

यही प्रकृति का  स्वभावपतझड़ वषंत बन ढलता 

यही अमृत और हलाहल,जीवन डोर से बंधा रहता







फ़िर भी तुमसे मेरी है विनती,मुझे इतना बता दो

जिसकी कुसुमाकर  छाया मेंमैं सोता,जागती था

जिसकी आकृति कारूप, रंग, स्पर्श मेरी आँखों 

की  पुतलियों  में प्रदर्शनी  बनकर  रहती  थी

अचानक  वह  प्रतिमा  मेरी आँखों से निकलकर

कहाँ चली  गईकहाँ  है वह मेरा श्यामजिसके

श्वास  स्पर्श  से हर्षित  होकर मेरा  रोम- रोम 

हिलता थाव्यथितक्लांत मन करता था विश्राम


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