यही है वह मदिरालय
जब आती है रात तब ढूँढती हूँ, खोये उस सपने को
जिसने अँधेरे में मेरा हाथ पकड़कर कहा था मुझसे
यही है वह मदुरालय, जिसे ढूँढ रहा था मैं अरसों से
विधि को व्याकुल करा देनेवाली माधुरी यही है
यहीं से उठता है, वारुणी ह्रदय का लाल तरंग
जो छिपे-छिपे प्राणों की सारी आग सहा करता है
यहीं से दीखता है मेरे भाग्य का सूरज और निशा का सोम
यही है वह फूल जिसके लिए ओस का आँसू बहाता रहता व्योम
इसी वृत्त पर खिलेंगी मेरे ह्रदय की मुग्ध कलियाँ
यहीं हरी होंगी तप्त हवाओं में झुलसी, ह्रदय कुसुम की डालियाँ
यही है वह रण खेत, जहां म्यान से निकलता नहीं असि
वीर रहता असहाय , दृगों से बरसता रहता अंबु
जगती की सुकुमार, सरल छवि की छटा यही है
मिटती जहाँ लहर सरिता की गोद में, वो उद्गम यही है
जिस कल्पना स्मृति में, भावना दृगों को मल-मलकर
लाल किये रहती है, उस कल्पना की तस्वीर यही है
आँखों की इस किरकिरी में, दर्द भले ही कम हो
मगर बेचैनी और खीझ बहुत होती है
आज भी जल उठते हैं, लघु जीवन के वे पल हल्के-हल्के
जिसकी आलोक छाया में बैठकर मैं सोचती हूँ
जिसके ह्रदय की निष्ठा इतनी कड़ी थी ,कर्म से किया कैसा
आह्वान भरी प्रेम मकरंद कली-सी प्रिय का ऐसा अपमान
जिसके लिए छिड़क राखी थी मैं मृदु फूलों का सुगंधित घोल
उसने वासना तृप्ति का स्वर्ग बताकर, मेरे दिल को दिया तोड़
सोचती हूँ आज कहाँ है वह प्रेम ह्रदय का उच्छ्वास
जो शयन शिथिल बाँहों में भरकर, पोछा करता था
मेरा नयन नीर , अधर पर अधर रखकर कहा करता था
तुम मेरे ह्रदय में ऐसे रहती हो, ज्यों सुरभि संग समीर
तुम ही हो मेरी स्वर्णाकांक्षा का वह प्रदीप जिसके समक्ष
मुक्तालोकित होता रहता. मेरे ह्रदय का रजत सीप
प्रकृति का वैभव भरा भू-खंड तुम ही हो
तुम से है शोभित सकल सृष्टि की सौन्दर्यता
तुममें भरी हुई है नरता, मानवता का श्रेष्ठ गुण
तुमसे अलग होकर संन्यासी भी नहीं जी सकता
अब कहाँ गया वह मधु गायन और शब्दों का छंद
जो आज भी मेरे रक्त में, तप्त लहू की धारा बन
बहता रहता, कानों में बजता रहता, सन-सन-सन
किया था मैंने कैसा पाप, जो प्रभु से मिला ऐसा न्याय
कहते हैं मृत्ति साथ अग्नि स्फुर्लिंग रहता, तो फिर
जलती क्यों नहीं धधक-धधक वह आग, जिसमें
भष्म हो जाता मेरा शरीर , मगर उसका आँचल
पकड़कर मैं कर जाती, जीवन सिंधु को पार
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