प्रायः लोग
मुझे--
नैतिक मूल्यों की
रोगिणी कहते हैं......
ऐसा अनुभव होता है.....
मानों--
असंख्य कीड़े रेंग रहे हों
चाट रहें हों मेरे अहम् को.
न जाने क्यों लोग प्रायः
हँसते हैं.......
कहती हूँ जब
मैं भी इंसान हूँ.......
अपने साथ---
न्याय करती हूँ.
कारण है शायद
अपने को आदर्शवाद का
पारदर्शी बाना पहना
धोखा नहीं देती......
हो सकता है--
मैं मिथ्या हूँ--
यह भी सम्भव है
मेरी आँखों में
वैसी चमक नहीं
जो की इन
तथाकथित
''इंसानों''में है
डॉ. सुधाओमढींगरा
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