“धर्मघ्वजी सदा लुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्ति को ज्ञेयो हिस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।।“
मनु-स्मृति में आडम्बर रचनेवाले के बारे में कहा गया है कि, अपनी कीर्ति पाने की इच्छा पूर्ति करने के लिये झूठ का आचरण करने वाला, दूसरे के धन को हरण करने वाला, ढौंग रचने वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला तथा सदैव दूसरों को भड़काने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है । पुरातन काल से ही भारत में धर्म के नाम पर आडम्बर-प्रदर्शन करनेवाले लोग थे और आज भी हैं । वेदों में, शास्त्रों में इनका खंडन भी किया गया है । भारत एक धार्मिक सनातन देश है, धार्मिक आचरण को बहुत ही प्रमुखता दिया गया था । किन्तु यही धार्मिक आचरण आगे चलते-चलते धार्मिक आडम्बर बन गया । जिसमें सच मानों तो किसी की भी भलाई नहीं है ।
प्लूटार्क जी का कहना है – “ अधिकांस मनुष्य प्रदर्शन-प्रिय होते हैं, क्योंकि सद्गुणशीलता की दिव्यता का न तो उन्हें न ज्ञान है न अनुभव ।“ सिर्फ आजकल ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से ही धर्म और समाज में आडम्बर और प्रदर्शन देखते आ रहे हैं । समाज धार्मिक रीति-रिवाजों और नियमों पर टिका हुआ है । इस आधुनिक युग में तो धार्मिक आडम्बर और प्रदर्शन के बारे में पूछिए मत, जहाँ देखो वहाँ मंदिरों में बडे-बडे पूजा-कर्म, यज्ञ हो रहे हैं । अनेक रुपये, आहार पदार्थ बर्बाद किए जा रहे हैं । मंदिर के बाहर भिखारी भीख माँगते हैं, उसके थाली में एक पैसा भी न डालकर मंदिर के भीतर जाकर धर्म के नाम पर उस दक्षिणा बक्से में हजारों रुपये आँख बंद करके डालते हैं, यहाँ बाहर भिखारी भूख के मारे मर जाता है । धर्म के नाम पर बडे-बडे भवन निर्माण ह रहे हैं, देवालय, सभाभवन निर्माण हो रहे हैं, यहाँ दूसरी ओर सामान्य जनता, भिखारी खुली आसमान में रहते हैं, धूप-बारिश के चपेटे प्राण गवा देते हैं। पर उनकी चिन्ता कौन करता है, लोगों को सिर्फ धर्म, भगवान या दिखावे की जीवन कि ही पडी है। बेशक मंदिरों का निर्माण हो पर अंध-विश्वास में आकर भुखों को भुखा मरने दे ये कहाँ का न्याय है? तो इस तरह के अंध-विश्वास को आडम्बर ही कहेंगे या और कुछ.....?
हम लोग धर्म से डरते हैं या हमारे सृष्टिकर्ता भगवान से डर रहे हैं, धर्म के नाम पर अंध-विश्वास के बलि चड रहे हैं । हम यहाँ भूल जाते हैं कि धार्मिक आचरण एक जीवन-कला है, धार्मिक आचरण एक बलिवेदि नहीं है । धर्म के आधार पर पवित्र जीवन बिताना चाहिए न कि धर्म में जीवन आहुति चढाना कोई धार्मिक क्रिया-कर्म नहीं है । इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी का धर्म के बारे में कथन है – “ दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट पहुंचाने के समान कोई पाप नहीं ।“
तो मनुष्य इस आडम्बर के पीछे कब भागने लगता है ? जब मनुष्य के व्यक्तित्व में खामियाँ होती हैं, जिसका व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं होता, जो अज्ञानी या अल्प ज्ञानी होता है, जिसको अपने आत्म बल पर विश्वास नहीं होता, जो वास्तविकता को नहीं मानता ऐसे लोग अक्सर आडम्बर या प्रदर्शन-प्रिय बन जाते हैं ।
अंध-विश्वासों में, अहम भावना में मनुष्य अंधा हो जाता है, अहंकार में लिप्त आडम्बरपूर्ण व्यवहार करने लगता है । वैसे तो मनुष्य ने जो कुछ भी हासिल किया है सब भगवान की दया है, परन्तु इस बात को भूलकर मनुष्य प्राप्त संपत्ति में से कुछ अंश उसी भगवान को अर्पण करने चल पडता है । यह बात किस हदतक सही ठहराते हैं कौन जाने ? इस संदर्भ में कविवर रहीम का एक दोहा याद आता है, रहीम के दोहे-पेड़ कभी अपना फल नहीं खाते, तालाब पानी नहीं पीता :-
“तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।“
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं । तो ऐसा हरगिज नहीं होता कि जिस भगवान की कृपा से हम कुछ हासिल करते हैं और उसी में से दिखावे के तौर पर भगवान को ही चढाने जाते हैं । ये मनुष्य की बुध्दिशक्ति है । नहीं ये तो सिर्फ आडम्बर है ।
धर्म के नाम पर पाखण्ड करना, धर्म के नाम पर लोगों को फंसाना इन सब में हमारा ईमान बेचा जाता है । आडम्बरपूर्ण जीवन जीने के लिए अनेक कष्ट करने पडते हैं, और वैसे तो वह अनुकरनीय भी नहीं है । धर्म में सरल पवित्र जीवन जीना एक सहज बात है । अगर हम इस बात को जीवन में अपनाते हैं तो कभी भी दूसरों के सामने झुकने का संदर्भ नहीं आता । धर्म मानवता की आत्मा है | ये एक निर्विवाद सत्य है | अतीत में जाकर धर्म की बुराइयाँ ढूँढनेवाले उन्हीं पन्नों को ठीक से देखें, एक बुराई के मुकाबले सौ अच्छाईयाँ दिखेंगी | कुछ गलत हुआ है तो वो धर्म से भटकाव है, धर्म नहीं । चाहे कौन सा भी काल आ जाए धर्म वही रहता है, जो भगवान श्रीरामचंद्र का, भगवान श्रीकृष्ण का था । हम तो ठहरे साधारण नर जीव, हम कौन होते हैं धर्म में बदलाव लानेवाले । अभी भी यह अन्त नहीं है, अभी भी वक्त उतना बिगडा नहीं है, कि जहाँ से हम वापस नहीं आ सकते । अब मानसिक बदलाव हो, न कि धार्मिक बदलाव ।
आईए इसी संदर्भ में धार्मिक आडम्बर से दूर रहने और इसे मिटाने के लिए निरंतर प्रयास करते हुए अपने मनुष्य होने को सार्थक करने का संकल्पम करें।
अंत में निष्कर्ष के तौर पर इन नीचे दिए गए अंशों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं –
• धर्म एक पवित्र आचरण है, आडम्बर एक पाप है ।
• भगवान की पूजा-उपासना करें, ढोंग न रचे।
• भगवान के सामने सिर झुकाए पर उसे बलिवेदि न बनाए ।
• स्वार्थ त्यागकर परहित के बारे मे सोचे, परहित में स्वयं भी होते हैं ।
• आडम्बर से कभी भक्ति नहीं होती है, पवित्र धर्म आचरण में खरी शक्ति होती है ।
• धर्म के नाम पर अंध-विश्वास न हो, धर्म एक मन की शुध्दि है ।
• भगवान के सामने सच्चे मन से प्रार्थना करें, दिखावे के लिए जोर-शोर म हो ।
• भगवान सगुण-निर्गुण का रुप हो सकता है, पर भगवान धार्मिक आडम्बर की अपेक्षा नहीं करता ।
• ’धर्मो रक्षति रक्षित:’ धर्म का पालन हो आडम्बर नहीं
• पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर वास्तविक एवं पवित्र धार्मिक जीवन बिताये ।
डॉ. सुनील कुमार परीट
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY