" स्त्री तू नीर भरी कहानी है, सब संघर्ष की निशानी है।
स्त्री तू हमारी जननी है, मानव जीवन की पानी है॥ "
श्री राजाराम मोहन राय ने विधवा पुनर्विवाह को प्रतिपादित किया उसी को यहाँ श्री भैरव प्रसाद गुप्त जी ने अपने उपन्यास ’गंगा मैया’ में दर्शाया है। 'गंगा मैया’ उपन्यास हिन्दी साहित्य के साठोत्तरी के काल में बहुत ही चर्चित आंचलिक उपन्यास है। श्री भैरव प्रसाद गुप्त जी कविता को छोडकर साहित्य की सभी विधाओं में लिखकर सफलता प्राप्त प्रसिध्द लेखक हैं। ’गंगा मैया’ में उत्तर भारत के देहाती जीवन को प्रगतिवादी दृष्टिकोण से अंकित करना एवं विधवा विवाह की समस्या को निरुपित करना इस उपन्यास का उद्देश्य है। इस उपन्यास में ग्रामीण किसान जीवन के साथ-साथ स्त्री समस्या को भी उजागर करके उस समस्या को सुखांत्य रीति से हल भी किया है। और इस तरह शायद ही कुछ उपन्यासों में देखने को मिलता है। मानते हैं कि भारतीय संस्कृति में भाभी को भी माँ के समान देखा जाता है। परंतु यहाँ पर हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासकार श्री भैरव प्रसाद गुप्त जी ने अपनी ’गंगा मैया’ उपन्यास में देवर की शादी अपनी भाभी से कर विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया है। हम उपन्यास में देखते हैं कि आरंभ से लेकर अंततक भाभी हमेशा द्वंद्व में जकडी हुई है। उसी समसामयिक नारी समस्या को लेकर इस अविस्मरणीय उपन्यास का सृजन हुआ है। यह उपन्यास इतना लोकप्रिय है कि इस पर दूरदर्शन पर धारावाही बनाया गया है। साथ में इसकी लोकप्रियता इतनी बढ गई कि अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद होकर प्रकाशित हुआ है, जैसे फ्रांसीसी तथा पुर्तगाली में भी प्रकाशित हो चुका है। इस उपन्यास में असल में गोपी अपनी भाभी से विवाह करता है, पर यहाँ दोनों में निश्चल और अप्रतिम प्रेम भावना है, जिससे पाठको के मन में भी सहानुभूति जागृत हो जाती है। उपन्यास में कहीं भी घृणा या अनैतिकता का आभास नहीं दिखाई पडता। दोनों में जो प्रेम की पवित्र भावना को दर्शाया गया है उससे पाठक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
इसका कथानक नवयुवक किसानों द्वारा शारीरिक बल प्रदर्शन से आरंभ होता है। मानिकचंद और गोपीचंद दोनों भाई-भाई हैं, और गाँव के इज्जतदार पहलवान हैं। कुस्ती में एकबार गोपी जोखू को उठाकर पटक देता है जिससे जोखू की मृत्यु हो जाती है। दोनों भाईयों की शादी दो सगी बहनों से हो जाती है। एक दिन मानिक को अकेला पाकर जोखू के शिष्यों ने मानिक की हत्या कर देते हैं। दोनों गाँववाले भीड जाते हैं, जिसमें और पाँच लोगों की मृत्यु हो जाती है। गोपी को पाँच साल की सजा हो जाती है। तब जेल में गोपी की दोस्ती मटरू से हो जाती है। मटरु घाघरा (गंगा मैया) का निवासी था।
’गंगा मैया’ उपन्यास में ग्रामीण जीवन तथा किसानॊं के आर्थिक शोषण को दर्शाया गया है। इसमें सामाजिक ऊँच–नीच, झूठी नैतिकता, रूढिग्रस्तता, रीति-रिवाज आदि बहुतमात्रा में देखने को मिलता है। परंतु असल में इस उपन्यास में स्त्री संकट, स्त्री सहिष्णुता एवं विधवा पुनर्विवाह को भी चित्रित किया गया है। इस उपन्यास की नायिका ’भाभी’ जो शादी के पश्चात शीघ्र ही विधवा होती है, सास-ससुर की सेवा में जूट जाती है, अनेक कष्ट सहती है, अपने सपनों को दबोचकर जीती है, चाहकर भी पुनर्विवाह को नहीं मानती। वैयक्तिकता और सामाजिकता के अंतःसंघर्ष के कारण इच्छाओं और परिस्थितियों का प्रभाव व्यक्तित्व, नैतिकता, वैचारिकता पर पडता है। नारी सम्मान और पारस्परिक संबंधों के जटिल अंतर्विरोध, प्रेम के अंतरंग स्वरूप तथा नारी-महत्त्वाकांक्षाओं ने नारी चरित्र में दोहरे व्यक्तित्व का निरूपण करने के लिए उपन्यासकार को बाध्य किया है। ’गंगा मैया’ में गुप्त जी ने अंततक ’भाभी’ को विधवा के रुप में रखकर, सास-ससुर की सेवा में निरत, अपने सपनों को तिलांजलि देकर एक सहिष्णुमयी भाभी के जीवन के बारे में सब द्वंद्व में पडने को विवश कर देते हैं।
मध्यवर्गीय नारी चरित्र एक प्रकार से अंतर्मुखी चेतना का विकास द्रष्टव्य होता है। वैयक्तिक रुचि, स्वतंत्र चेतना, महत्त्वाकांक्षाओं का आग्रह आधुनिक उपन्यासों के नारी चरित्रों को अपेक्षाकृत अधिक द्वन्द्वी और विद्रोही बना दिया है। ’गंगा मैया’ में भी ’भाभी’ का कोई स्वतंत्र जीवन नहीं, उसे स्वप्न देखने का अधिकार भी नहीं। इसलिए वह कराह उठती है- "मेरी ऐसी जिन्दगी कबतक रहेगी। समाज में ऐसा अंतर क्यों? एक तो अपनी उजडी दुनिया को फिर बसा सकते हैं। दूसरे को तिल-तिलकर राख हो जाने को विवश होना पडता है।" इस तरह भाभी जीने-मरने की स्थिति में ही द्वंद्व में जखडी हुई है। परिणामतः पारस्परिक संबंधों में अंतर्विरोध झलकता है।
भाभी के पति की हत्या हो जाती है, देवर गोपी भी जेल जाता है, भाभी का खयाल रखनेवाला कोई भी नहीं, तो भाभी अकेली हो जाती है, बहुत अकेली रह जाती है। आधुनिक हिंदी उपन्यासों में नारी चेतना के परिप्रेक्ष्य में अकेलेपन की अब, स्वतंत्र अस्मिता के संघर्ष के प्रति जागरूकता, विवाह, परिवार और समाज के प्रति उनकी भूमिका तथा मानवीय चेतना की प्रतिष्ठा का चित्रण किया गया है। यह अकेलेपन की स्थिति पाश्चात्य संस्कृति की देन ही है, जो परिवेशजन्य परिस्थिति से उत्पन्न होता है क्योंकि भारतीय संस्कृति में ’वसुधैव कुटुंबकम्’ का ही चिंतन रहा है। तो ’गंगा मैया’ उपन्यास पर भी इस पाश्चात्य संस्कृति का कम-ज्यादा असर दिखाई पडता ही है। आज पाश्चात्य चिंतन की आयातित मानसिकता ने अकेलेपन का सूत्रपात किया है। आधुनिक काल में नारी के प्रति पुरुष के भाव बदल गये हैं। नैतिक मूल्यों का विघटन, परंपराओं के प्रति विद्रोह, जिजीविषा और अस्तित्व का संघर्ष आधुनिक उपन्यास के नारी चरित्रों में उकेरा गया है। ’गंगा मैया’ में भी भाभी जीने की आस में कुछ सपनों को सजाती है, जो सहसा सच नहीं होती।
समाज की नैतिक मान्यताओं, रुढियों एवं परंपराओं को तोडने में सजग एवं सक्रिय हैं। वैयक्तिकता और सामाजिकता के अंतःसंघर्ष के कारण इच्छाओं और परिस्थितियों का प्रभाव व्यक्तित्व, नैतिकता, वैचारिकता सामाजिक यथार्थ, परंपराओं का नवीनीकरण और आधुनिक-बोध का प्रभाव सभी पर पडता है। काम में विलंब होते ही सास चिल्लाती और यह भाभी उसे उलटा जवाब देती- “मेरे दो ही हाथ तो हैं। क्यों तुम्ही नहीं कर लेती।"
’गंगा मैया’ में भाभी के जीवन में मोहभंग, टूटन, विघटन, वर्ग संघर्ष की समानांतर चेतना एवं जीवन का अर्थ-बोध उकेरा गया है। भाभी नारी संघर्ष की साक्षात मूर्ति सा भास होती है। भाभी सारहीन जीवन में इतनी टूट गयी थी कि वह कब क्या करती खुद भी नहीं जान पाती। कभी-कभी आधी रात को उठकर बर्तन मांझने लगती, स्नान करती, पूजा करती। इसे देखकर सास कहती- “अरे इतनी रात क्यों उठी? अभी काफी अंधेरा है। सो जा।" सास-ससुर की सेवा करते दिन बिताती। दुबली-पतली सूखी देह, पीला चेहरा। फिर भी सब कामकाज करती रहती।
कभी-कभी रुठी हुई जिंदगी को संवारना चाहती थी, सपनों को सच बनाना चाहती थी। लेकिन समाज से, रीति-रिवाज से डरती थी। ऐसे विचार मन में आते ही तिल-मिला उठती है। भगवान से प्रार्थना करती- “हे भगवान, मुझे शक्ति दे कि कुल-रीति पर कायम रहूँ। मन में उठती अपवित्र भावनाओं पर काबू पा सकूँ। विधवा जीवन पर कलंक न लगने दूँ।" लेकिन भगवान से उसे वह शक्ति नहीं मिल रही थी। मन चंचल होता। उसे काबू में रखने वह कोशिश करती। कभी-कभी ससुर भी बहु की दशा देखकर खिन्न हो जाते, उसकी सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं। तब करुण मुस्कान, होठों पर लाकर भाभी कहती- “सुख तो उन्हीं के साथ चला गया, बाबूजी मेरा लोक-परलोक दोनों नाश हो गया। बाबूजी आप मुझे आसीस दीजिये कि जितनी जल्दि हो सके, इस संसार से छूटकारा मिल जाये।"
तो दूसरी ओर गोपी भाभी का बहुत खयाल रखता था, भाभी भी अपने अकेलेपन से ऊब गयी थी। परंतु भाभी चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। मटरु गोपी की शादी भाभी से करवाना चाहता था। सब जानते थे कि इसे समाज और रीति-रिवाज नहीं मान्य करती। फिर भी गोपी भाभी को मनाकर पिताजी से इस बात की जिक्र की तब माँ-बाप दोनों, दोनों को गालियाँ देने लगे। सास तो बहु को बहुत डाँट रही थी- “कलमोही, तुझे शर्म न आयी। देवर पर नजर डालते। मैं तुझे सावित्री-सी समझती थी। क्या तेरे ये पूजा-पाठ सब ढॊंग थे। चुडैल! तुझे लाज न आयी वह सब पाप करते। तू कहीं डूबकर मर जा।"
रुढिवाद, सामाजिक प्रतिबध्दता, रीति-रिवाज, पारिवारिक अंतर्विरोध, संघर्ष जैसी सभी ज्वलंत समस्याओं से भरपूर इस ’गंगा मैया’ उपन्यास में अंत में एक सुखांत का एहसास पाते हैं। इस तरह का व्यवहार बहुत कम उपन्यासों में देखा होगा। हिन्दी साहित्य में श्रेष्ठ उपन्यासकार श्री भैरव प्रसाद गुप्त जी ने एक ऐसा साहसमय काम कर दिखाया है जिससे वास्तविकता को एक नया मोड मिल गया है। सभी रुढिवादी-परंपरावादी लोग उनके विरोध में थे, पर गुप्त जी मात्र सामाजिक क्रान्ति की ओर बढ रहे थे। इस माध्यम से नारी संधर्ष को मुक्ति देना चाहते हैं।
“ संघर्षरत है भाभी , सहिष्णुता की देवी है भाभी।
कष्ट अनेक सहकर , जिंदगी को सीख दी है भाभी॥ "
श्री सुनील कुमार परीट
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