“दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने के समान कोई पाप नहीं है।“ धर्म और पाप के बारे में ये उक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी की है। धर्म के सार-संगत को पहचानकर अनुभूति के आधार पर ही ऐसे संतों ने ताना खींचा है। प्राचीन संत महात्मा हो या आधुनिक साहित्यकार हो सभी ने धर्म को केंद्रबिन्दु मानकर साहित्य का सृजन करते हैं। साहित्य की विधा कहानी, उपन्यास, नाटक हो या कविता सबके लिए विषयवस्तु वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक प्रसंग होते हैं। सबसे ज्यादा प्रभावशाली धर्म को लेकर साहित्य का सृजन होता है। क्योंकि हमेशा ही साहित्य और समाज में धर्म एक ज्वलंत विषयवस्तु है। देश में हमेशा राम और रहिम को लेकर बहस होता रहा है। किसी ने राम को कविता का केंद्र बनाया है और किसी ने रहिम को। भगवान राम हो या रहिम हो किसी का बुरा नहीं चाहते, सभी धर्म के तत्व एक हैं, सार एक है। हमारा अज्ञान, झूठा अभिमान हमें द्वेष के आग में ढकेल रहा है। इसलिए युवा कवि श्री अनुराग भोमिया की फेसबुक पर एक कविता अत्यंत चर्चित है –
“ मैंने राम को नहीं देखा
नहीं देखा मैंने उसके काम को
मैंने देखा है तो बस
उसके नाम पे होते हराम को
देखा है मैंने लोगों को घृणा में जलते हुए
देखा है उन्हें अज्ञान की कोख में पलते हुए
मैंने प्यार के अंजाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा
क्या राम चाहेगा किसी की इमारत गिरे
क्या राम चाहेगा कि धर्म के नाम दिल चिरें
मैंने ऐसे इंतजाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा....।“
धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता के हल के लिए यह आधुनिक काल समयोजित हो सकता है इस तरह कुछ आलोचक अपना मत रख रहे हैं। परंतु इससे सभी लोग सहमत नहीं है, यह भी एक महत्वपूर्ण बात है। आधुनिक साहित्य या आधुनिक कविता धर्म संकट से बचा रही है या ढ्केल रही है इसी द्वंद्व में है हमारा देश। देश ने हमेशा देखा है कि एक व्यक्ति से शुरु हुआ दंगा-फसाद धर्म का रुप ले बैठता है। इसके जिम्मेदार कौन है? साहित्य को ठहरायेंगे तो साहित्य ने हमेशा धर्म को संजोया है, धर्म को विषयवस्तु बनाकर धर्म को उजागर किया है।
एक जगह श्री विजयदेव नारायण साही जी कहते हैं- “सच कहिए तो हम एक निरापद सिद्धान्त की स्थापना कर सकते हैं। जब भी दो धार्मिक सम्प्रदायों के बीच की सीमा रेखा गरम होने लगती है तो हर सम्प्रदाय के मर्म में जो धार्मिक अनुभूति है उसकी जगह ऐतिहासिक अनुभूति लेने लगती है। तनाव बढ़ता है। विचित्र बात यह है कि आखिरकार ऐतिहासिक अनुभूति धर्मनिरपेक्ष अनुभूति है।“ देश एक है पर धर्म अनेक हैं। तो ऐसे संदर्भ में कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए धर्म धर्म के बीच, मजहब मजहब के बीच अनावश्यक झगडा पैदा कर देते हैं और उसका सूत्रधार कहकर बडपन दिखाते हैं। इसलिए एक कवि अपनी कविता ’मजहब और बदलाव’ में कहते हैं -
“बूढ़ी इमारतों की तरह खड़े हैं
उन्हें ढहाना जरूरी
लगता है
पर नया मजहब मत बनाओ।
प्यार और दया तो इंसानी खून में होते हैं
तुम
अपने लफ्ज और लकीरें खींचकर
कोई नया पैगाम न लाओ। “
धर्म के नाम पर किसी की जान लेना कोई धर्म या मजहब नहीं सिखाता। ऐसा करते हैं तो ये एक धर्म की हत्या होगी ना? इसलिए श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी अपनी कविता ’धर्म की हत्या’ में आवाज बुलंद करते हैं -
“धर्म जान लेने या देने से नहीं
जान बचाने से फैलता है
और ख़ुदा, भगवान, जीसस, वाहेगुरू
किसी भी धर्म को
इस धरती पर दूसरा मौका नहीं देते ॥“
अगर धर्म के नाम पर आतंकवाद या लडाई करते हैं तो ये कौनसा धर्म है? धर्म का सार ही है परोपकार-परहित है। अंधविश्वासों एवं अज्ञान में हम अधर्म की खाई में कूद रहे हैं। इसी बात को श्री तेजेंद्र शर्मा जी अपनी एक कविता में स्पष्ट करते हैं -
“ समस्या हमारी है
हमारे युग के
धर्म और अधर्म
हुए हैं कुछ ऐसे गड़बड़
कि चेहरे दोनो के
लगते हैं एक से । “
मनुष्य का स्वभाव हर हाल में एक समान नहीं होता। कुछ मनुष्य हमेशा दूसरों की भलाई के बारे में सोचते हैं तो कुछ स्वार्थ भावना में ही लपेटे होते हैं। मुख्यतः मुनष्य दो प्रकार के होते हैं धार्मिक और अधर्मी। धार्मिक व्यक्ति "सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्" की भावना से ओत-प्रोत रहकर सभी प्राणियों का हित करता है, और अधर्मी व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने धर्म और अधर्म की सबसे अच्छी परिभाषा की है -
“परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥“
हमें यह मानकर भी चलना है कि कविता भी हमेशा मानवता की भलाई के बारे में ही नहीं सोचती। कतई साहित्य को सदा स्वान्त सुखाय के लिए ही प्रयुक्त यह भी मूर्खता होगी। आज मनुष्य जाती को अगर बचाना है और साहित्य की कोई नैतिक भूमिका समाज में होनी है तो हमारी कविता को अपनी नई एवं प्रभावी भूमिका में विज्ञानं और धर्म के बीच महत्व पूर्ण भूमिका निभानी होगी । कविता को जहाँ विज्ञान के दोहन में संयम को स्थापित करना है । वहीँ धर्म में हिंसा को समाप्त कर उसे ज्यादा मानवीय बनाने का कठिन कार्य करना होगा । धार्मिक स्वार्थ या निजी स्वार्थ में कभी कबार साहित्य भी गुमराह हो जाता है। साहित्यकारों को, कवियों को सदा सचेत रहकर निज धर्म की प्रतिष्ठापना में सहयोगी बनना चाहिए।
श्री सुनील कुमार परीट
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