चमकती आँखों में
कोई किस्सा न जान पाया
मौसम की तरह ये
बार-बार बदलती हैं पलकें
खुशी का एक सपना
सजाया था नपथ्य में
बशर्ते अपनों ने ही
छोड दी अकेलेपन में
रौंद-रौंदकर आँखें
सपने को चकनाचूर करके
लाभ इसका न जाने किसको
खाली रह गया खाली था
वे खुश रह गये खुश थे
सपना था अपना दूजा था पराया
सपना भी कब बन गया पराया
रोशनी ढूँढता अंधेरी रातों में
शमशान जगह ढूँढता अपनों को
आस है मुझे जन मानस में
कोई तो बनेगा अपना
कोई तो बनेगा सपना॥
- डॊं. सुनील कुमार परीट
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