Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पुस्तक प्रोन्नयन

 

“पुस्तकें जहाँ भी होंगी, वह स्वर्ग बन जाएगा।” यह उक्ति बालगंगाधर तिलक की है जो सत्य को प्रकट करती है। पुस्तक का महत्व ही इस एक उक्ति से हम समझ पाते हैं। पुस्तक मानव जीवन में हमसफर, गुरु एवं मार्गदर्शक का पात्र बखूबी निभाते हैं। जब भी अवसर मिलता है तो पुस्तकों से बढकर कोई अच्छा हितैषी हो ही नहीं सकता। ये मनोरंजन के साथ-साथ आत्मशान्ति का भी काम करते हैं। पुस्तके मन में सहृदयता, संवेदना जागृत करती हैं, दिल में एक अजीब सा हलचल पैदा करती हैं। पुस्तकों का मूल्य मोती-रत्नों से भी अधिक होता है क्योंकि रत्न तो केवल बाहरी चमक - दमक दिखाते हैं पर पुस्तकें हमारे अन्तःकरण को उज्ज्वल बनाती हैं, आंतरिक ज्ञान को बढाती हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि पुस्तकों का भंडार यानी ज्ञान का भंडार है। सो हमेशा हमारे पास एक ना एक किताब जरुर हो, जिससे हम आश्वस्त रहते हैं। एक अरबी कहावत है –“पुस्तक जेब में रखा हुआ बगीचा है।”


किताब तेरी महिमा है अपरंपार।
तेरा गुण गाता है सारा संसार॥
आदिकाल से सरस्वती माँ है तू।
ज्ञानी-अज्ञानी को मधूर छाँव है तू॥
तू सारा इतिहास बयां करती है।
तू प्रगति की राह दिखा करती है॥
गीत-कहानी-नाटक सब देती है।
पाप-पुण्य धर्म-कर्म सब सिखाती है॥
किसी गुरु से कम नहीं तेरी महिमा।
अब इससे आगे क्या गाउँ तेरी गरिमा॥


पुस्तक की या किताब की महिमा जितनी भी गाये जाए उतनी कम ही है। ये ’किताब’ नामक मेरी ही कविता की कुछ पंक्तियाँ है। सच है मनुष्य ज़िन्दगी भर सीखता है और इस प्रक्रिया में पुस्तकें अहम् भूमिका निभाती हैं। पुस्तकों की परम्परा अत्यंत प्राचीन हैं, सबसे पहली पुस्तक वेद थे। चाहे वह वेद हो, या पुराण हो, कुराण हो या फिर बाइबिल हो सब ज्ञान के आगार हैं। कहा जाता है कि बादशाह अकबर साक्षर नहीं था पर उसे पुस्तकों का बहुत शौक था उसने एक विशाल पुस्कालय बनवाया और विद्वानों से पुस्तकें पढवाकर ज्ञान अर्जित करता था। यहाँ पर श्री दीनदयाल शर्मा जी की एक कविता याद है –


“सुख - दुःख में साथ, निभाती रही किताब
बुझे मन की बाती, जलाती रही किताब
जब कभी लगी प्यास, बुझाती रही किताब
मन जब हुआ उदास, हँसाती रही किताब
अँधेरे में भी राह, दिखाती रही किताब
अनगिनत खुशियाँ, लुटाती रही किताब..॥”


इतना सबकुछ होते हुए भी इस पुस्तक प्रोन्नयन के बारेमे आज भी अनेक समस्याएँ हैं। प्रोन्नयन को छोडिए समस्या तो प्रकाशन से शुरु होती है। क्योंकि पुस्तक प्रकाशन में लेखक को प्रकाशक के लिए हजारों-लाखों रुपये देने पडते हैं। प्रकाशन के बाद पुस्तक प्रोन्नयन, लोकार्पण, प्रचार-प्रसार के लिए फिर एक मंच की तैयारी करनी पडती है, लोगों को , पाठकों को इकठ्ठा करनी पडती है। और यहाँ तक सब के लिए लेखक को ही पैसे खर्च करनी पडती है या किसी राजनीतिक मंत्री के या किसी संस्था के अध्यक्ष के पैर पकडने पडते हैं। खैर हम यहाँ देखेंगे –


• पुस्तक प्रोन्नयन की समस्याएँ :-
१. संपूर्ण जिम्मेदारी लेखक को सौंपी जाती है।
२. प्रकाशक पुस्तक प्रोन्नयन में आगे नहीं आते।
३. उचित मंच उपलब्ध नहीं हो पाता।
४. पुस्तकों को पढने में पाठकों की अरुचि।
५. शहरी और गांव के पाठकों की अभिरुचि में भिन्नता।


इस संबंध में UNESCO से प्रकाशित BOOK DISTRIBUTION AND PROMOTION PROBLEMS IN SOUTH ASIA किताब में Mr. N. SANKARANARAYANAN जी कहते हैं “The potentialities of the book market in South India have not yet been properly assessed. Though efforts are being harnessed, it might take quite sometime to canalize them on organized lines. It is not so easy to do it as it might appear at the outset. The entire book trade in South India is loosely knit, with no well thought-out plans for a co-ordination at a later stage among the several limbs to broaden the conception of its market.” (p.163) यानी की पुस्तक प्रोन्नयन की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अमरिका, इंग्लैंड, बर्मा, इरान जैसे सभी देशों में सभी लेखक इसका सामना कर रहे हैं।


• पुस्तक प्रोन्नयन की संभावनाएँ :-
१. इस वैज्ञानिक एवं प्रोद्योगिकी युग में लेखक अपना नीजि वेबसाइट खोलकर उसपर पुस्तक प्रोन्नयन कर सकता है।
२. लेखक अपने ब्लोग पर, फेसबुक पर, ट्वीटर पर, यू ट्यूब पर, व्हाट्सैप पर भी पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते है।
३. आजकल यह आनलाइन का जमाना है तो स्नैपडील, अमेजान, इबे, फ्लिपकार्ट, प्ले स्टोर आदि आनलाइन कंपनियाँ हैं उनसे समझौता करके वहाँ पर पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते है।
४. सार्वजनिक या नीजि किसी मंच का उपयोग करके वहाँ पर पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते है।
५. पुस्तक मेले में, संगोष्टियों में एवं कवि सम्मेलनों में पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते है।
६. संचार एवं तकनीकी माध्यमों इस्तेमाल ज्यादा हुआ है तो उन्हीं माध्यमों व्दारा पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते है।
तो क्या इस पुस्तक प्रोन्नयन की समस्याओं के आगे हार मानकर घूटने टेकने से समस्या का हल निकल आयेगा। कभी नहीं...! हमने ऊपर कुछ संभावनाओं के बारेमें भी चर्चा की है। उन संभावनाओं को अपनाकर आज भी पहले से भी बडे पैमाने पर पुस्तक प्रोन्नयन कर सकते हैं। जरा सोचिए कि प्राचीन काल में संचार एवं तकनीकी माध्यम ही नहीं थे तभी उनकी पुस्तकें कितनी प्रसिद्ध थी, तो आजकल हमारे सामने इतने माध्यम है, आओ उनका उपयोग करके समस्या को सुलझाए।
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डॉ. सुनील कुमार परीट

 

 

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