Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

शिष्टाचार

 

 

“ सत्य बोलना ही देवलोक
असत्य बोलना ही मर्त्यलोक
आचार ही स्वर्ग, अनाचार ही नरक ॥“

 


ये बातें आचार और शिष्टाचार के संदर्भ में बारहवीं शताब्दी के महामानव श्री बसवेश्वर की हैं। शिष्टाचार का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग ही सत्य बोलना है।

 


’शिष्टाचार’ शब्द की उत्पत्ति एवं विकास ही प्राचीन काल से हुआ है किन्तु इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में यह नाम मात्र का रह चुका है। वेदों-पुराणों में भी इसका उल्लेख हम देख सकते हैं। जैसे गायत्री मंत्र का अंतिम अक्षर ’त’ हमको सहयोग और शिष्टाचार की शिक्षा देता है-

 


“तथा चरेत्सदान्येभ्यो वाच्छत्यन्येर्यथा नर:।
नम्र: शिष्ट: कृतज्ञश्च साहाय्यवान भवन:॥“

 


अर्थात हम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा हम दूसरों से चाहते हैं। हमे नम्र, शिष्ट, कृतज्ञ और सहयोगी होना चाहिए।

 


शिष्टाचार दर्पण के समान है, जिसमें मनुष्य अपना प्रतिबिंब देखता है। शिष्टाचार संस्कृत मूल का शब्द है। शिष्टाचार का अर्थ होता है औपचारिकता। शिष्टाचार ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। शिष्टाचार की परिभाषा के संदर्भ में श्री महेश शर्मा जी का कहना है- “शिष्ट+आचार= शिष्टाचार- अर्थात विनम्रतापूर्ण एवं शालीनता पूर्ण आचरण शिष्टाचार्य वह अभूषण है जो मनुष्य को आदर व सम्मान दिलाता है शिष्टाचार्य ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा अशिष्ट मनुष्य तो पशु की श्रेणी में गिना जाता है|” शिष्ट+आचार अर्थात् शिष्टाचार अथवा यह कहें कि शिष्ट आचार करना शिष्टाचार है, जिसमें मनुष्य का व्यक्तित्व छिपा होता है। शिष्टाचार मनुष्य को मनुष्य कहलाने योग्य बनाता है, अन्यथा अशिष्ट मनुष्य तो पशु–के समान समझा जाता है। इसलिए श्री मनोज गुप्ता जी कहते हैं- “जिस मनुष्य में शिष्टाचार नहीं है, वह भीड़ में जन्म लेता है और उसी में कहीं खो जाता है। लेकिन एक शिष्टाचारी मनुष्य भीड़ में भी अलग दिखाई देता है जैसे पत्थरों में हीरा। शिष्टाचारी मनुष्य समाज में हर जगह सम्मान पाता है- चाहे वह गुरुजन के समक्ष हो, परिवार में हो, समाज में हो, व्यवसाय में हो अथवा अपनी मित्र-मण्डली में। अगर कोई शिक्षित हो, लेकिन उसमें शिष्टाचार नहीं है तो उसकी शिक्षा व्यर्थ है।“ जी हाँ एक बात का भ्रम सबमें होता है कि एक शिक्षित व्यक्ति शिष्टाचारी होता है। लेकिन हमेशा देखा जाता है शिक्षित व्यक्ति से ज्यादा सभ्यताएँ अनपढ एवं गंवार व्यक्ति में होते हैं। भारतीय संस्कृति आज क्या से क्या बन गई। क्योंकि पहले गांव के द्वार पर लिखा जाता था ’अतिथि देवो भव:’ पर आज की संस्कृति बहुत बदल गई है, आज शहरों में घर के द्वार पर लिखा हुआ होता है ’यहाँ कुत्ता है बचके रहना’ जरा सोचिए ये कैसा शिष्टाचार है? एक व्यक्ति दूसरे के साथ जो सभ्यतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे शिष्टाचार कहते हैं। यह व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि अपने रहन- सहन तथा वचनों से दूसरों को कष्ट तथा असुविधा न हो। प्राचीन कहावत है कि मनुष्य का परिचय उसके शिष्टाचार से मिलता है। अंग्रेजी कहावत है कि- ’MANNERS MEKES A MAN.’ जी हाँ मनुष्य का परिचय शिष्टाचार से ही होता है। चोरी करना, हत्या करना. झूठ बोलना, निंदा करना, घृणा करना आदि सभी बातें शिष्टाचार के खिलाफ हैं। जो शिष्टाचारी होता है उसमें ये सभी दुर्गुण नहीं हैं और शिष्टाचारी में दैवी गुण होते हैं। इसलिए सामाजिक क्रान्तिकारी विश्वमानव श्री बसवेश्वर लिखते हैं-

 


“ न करो चोरी, न करो हत्या
न बोलो मिथ्या, न करो क्रोध
न करो घृणा, न करो प्रशंसा अपनी
न करो निंदा दूसरों की,
यही है अंतरंग शुध्दि यही है बहिरंग शुध्दि ॥“१

 


“जिस तरह एक सिक्का बाजार में नहीं चल सकता, उसी तरह एक खोटा आदमी भी बाजार में चल सकता, समाज उसके साथ कोई व्यवहार नहीं करता। खोटा आदमी यानि जिसके विचार खोटे हैं, जिसकी नियत खोटी है, जो लोगों के साथ धोका-धडी करता है। और जिसमें शिष्टाचार नहीं हैं वह खोटा आदमी है।“ यह परिभाषा खोटा आदमी और शिष्टाचार के लिए अत्यंत सटिक है। शिष्टाचार अगर मनुष्य में न हो तो वह खोटा आदमी बन जाता है। और आजकल तो मनुष्य में शिष्टाचार की कमी तो हरपल महसूस हो ही रहा है। किस में संदर्भ में किस विषय पर बात करनी है ऐसे सामान्य शिष्टाचार भी खो दिया है। तो इस संदर्भ में श्री मुनीश्वरलाल चिन्तामणि जी की ’शिष्टाचार की स्थिति’ कविता की कुछ पंक्तियाँ याद हैं-

 


“जब से / शिष्टाचार ने
खो दिया है / अर्थ अपना
जब से / शिष्टाचार
औपचारिकता बन गया है
तब से / उसके प्रति
मन में / बेहद वितृष्णा
बेतरह घृणा / पैदा हुई है॥“

 


हमारी वाणी अच्छी होनी चाहिए, हमारा आचरण अच्छा होना चाहिए, हमारे विचार सद्विचार होने चाहिए तभी हम शिष्टाचार को आत्मसाथ कर ले सकते हैं। अगर हम संवेदनशील नहीं होंगे, दूसरों के प्रति परोपकारी नहीं होंगे तो हम में शिष्टाचार कहाँ से आयेंगे? और इन शिष्टाचार का मूल स्रोत हमारा घर-परिवार है, समाज है। हम घर में बच्चों का लालन-पालन कैसे करते हैं, बच्चों में कैसे संस्कार भरते हैं वैसे ही उसमें शिष्टाचार होते हैं। वही बच्चा भविष्य में नागरिक बनकर घर में, समाज में, देश में अपना प्रभाव छोडता है। स्वस्थ समाज के लिए, उत्तम राष्ट्र निर्माण में वहाँ के नागरिकों में शिष्टाचार होना बहुत जरुरी है। इस जीवन में हमे हरपल हरक्षण शिष्टाचार का पालन करना पडता है। असल में हमारा जीवन ही नीति-नियमों पर अडा है। घर में, समाज में, धर्म में अलग-अलग शिष्टाचारों का पालन करना पडता है। जैसे-

 


१. पारिवारिक शिष्टाचार
२. सामाजिक शिष्टाचार
३. धार्मिक शिष्टाचार
४. व्यावहारिक शिष्टाचार
५. शैक्षिक शिष्टाचार

 


शिष्टाचार मनुष्य के जीवन मे होना ही चाहिए वरना मनुष्य और पशु मे अंतर ही क्या रह जायेगा? क्योंकि अरस्तू ने कहा है ’human is social being.’ जबकि मनुष्य समाजजीवि है तो मनुष्य में शिष्टाचार होनी ही चाहिए। प्राचीन काल से ही जबसे मनुष्य में समझदारी आयी है तवसे मनुष्य समाज में रहता आया है। और शिष्टाचार ही मनुष्य को पशुओं से अलग स्थानमान पर पहुँचाया है। शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और कामयाबी प्रदान करता है। शिष्टाचारी मनुष्य हमेशा दूसरों का ख्याल रखता है, स्म्मान करता है। हमे जो सम्मन – गौरव प्राप्त होता है वह शिष्टाचार की वजह से प्राप्त होता है। अपने मुख से अपनी तारीफ़ करना अच्छे व्यक्तियों का लक्षण है। कहा भी गया है---

 


" बड़े बढ़ाई न करे बड़े न बोले बोल।
हीरा मुख से कब कहे मेरा लाख टका है मोल॥"

 


कहने को तो शिष्टाचार की बातें छोटी-छोटी होती हैं, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं। शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति अकसर अहंकार, ईष्र्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है। शिष्टाचार को बाल्यावस्था में ही बच्चों में भरना बहुत महत्वपूर्ण बात है। शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण व सकारात्मक नजरिया रखता है। शिष्टाचार को माननेवाला व्यक्ति सकारात्मक सोच को भी दिमाग रखता है। व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है। मानव जीवन की सार्थकता ही शिष्टाचार में है। शिष्टाचार ही निज आभूषण है। आज जो माहोल है उसमें शिष्टाचार की बहुत कमी है। इस तरह शिष्टाचार को भूलकर हम किस खंडहर में, किस खाई में जा रहे हैं? क्या यह हमारा अज्ञान नहीं है? हर हाल में आवश्यक है कि अज्ञान और अहंकार को त्यागकर शिष्टाचार को अपनाना ही चाहिए। इसलिए कवयित्री अपर्णा जी कहती हैं-

 

 


“एक बात तुम सुन लो प्यारे
शिष्टाचार ना आया हमको
तो कुछ भी ना आया हैं
कर लो चाहे जितनी उन्नति
फिर भी कुछ ना पाया हैं
शिस्ट हो आचार हमारा
ऐसा हम विचार करे
दे जाए दुनिया को कुछ ऐसा
की दुनिया हमको
युगो युगो तक याद करे..॥“
*****

 

 

 

श्री सुनील कुमार परीट

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ