री रामस्वरुप चतुर्वेदी का जन्म १९३१ ई॰ में कानपुर में हुआ। चतुर्वेदी जी की आरम्भिक शिक्षा उनके पैतृक गाँव कछपुरा (आगरा) में हुई। चतुर्वेदी जी ने बी॰ए॰ क्राइस्ट चर्च कानपुर से, एम॰ए॰ की उपाधि इलाहाबाद विश्व विद्यालय से १९५२ में, डी॰फिल॰ १९५८ में तथा डी॰लिट॰ की उपाधि १९७२ में प्राप्त की। ’नए पत्ते’ (१९५२) , ’नयी कविता’ ; (१९५४) और ’क-ख-ग’ (१९६३) आदि पत्रिकाएँ उनकी संपादन में निकली हैं। वे एक सक्षम संपादक थे, एवं अच्छे आलोचक थे, इसमें कोई दूसरी बात नहीं। आप १९५४ से इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे।[1] हिन्दी नयी कविता के प्रमुख कवियों- जगदीश गुप्त, रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजयदेवनरायण साही में से एक हैं। वैसे देखा जाए तो रामस्वरुप चतुर्वेदी जी का जीवन कुछ हदतक संघर्षमय ही रहा, पर जब उनकी अभिरुचि साहित्य की ओर बढी तो उन्होंने प्राचीन काल से आधुनिक काल तक की कविताओं की खूब आलोचना की। वे आगरा जनपद के कछपुरा गाँव के मूल निवासी थे, अतः १९४६ में जब हाई-स्कूल पास कर लिया तब वे आगे की पढ़ाई हेतु कानपुर आए, तब तक सारी पढ़ाई गाँव में ही संपन्न हुई थी। कानपुर क्राइस्ट चर्च से बी.ए. की डिग्री प्राप्त करके वे १९५० में एम.ए. (हिंदी) में प्रवेश प्राप्त करके इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर प्रमदाचरण बनर्जी हॉस्टल में रहने लगे, जहाँ वे १९५४ तक रहे। जनवरी १९५४ से वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुए। प्रारंभ से ही वे साहित्यानुरागी थे तथा उनकी अनेक कविताएँ ‘सुमित्रा’ (कानपुर) आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। आपने प्रोफेसर धीरेंद्र वर्मा के निदेशन में ‘आगरा जिले की बोली’ अस्तु भाषा-विज्ञान में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की, किंतु अपने अध्ययन-व्यसन के लिए क्षेत्र का चयन किया ‘आलोचना’ का।
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी जी की सभी कृतियाँ आलोचनात्मक दृष्टि से एक से एक बढकर हैं। विशेष रुप से भाषा और संवेदना की दृष्टि से उनकी कृतियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उनकी एक किताब ’ भाषा और संवेदना’ (१९६४) में साहित्य की भाषा और संवेदना को बहुत ही बारिक से ठोस अध्ययन करके आलोचना की है। प्रसाद, निराला, अज्ञेय के काव्यों पर बहुत ही सुंदर ढंग से आलोचना की है। भाषाशैली एवं भावना को बहुत ही महत्व दिया गया है। भक्तिकालीन कवि जैसे तुलसी, कबीर, सूर आदि के सैध्दांतिक पक्ष की लेकर भी आलोचना की है। भाषा पर ही इन्होने ज्यादा जोर दिया है क्योंकि साहित्य की महता भाषा पर ही टिकी हुई है। “रामस्वरुप जी नयी कविताओं में प्रयुक्त बोलचाल की भंगिमा से प्रसन्न नहीं होते। क्योंकि इन कविताओं में ब्प्लचाल संप्रेषण न होकर एक मजेदार उक्ति भर रह जाती है।”
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी हिंदी के आलोचकों में उस स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने आलोचना को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर देखा-परखा है। आचार्य शुक्ल का ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ रामस्वरूप चतुर्वेदी के पूरे रचना-कर्म की बहुत भारी विशेषता है। उनकी मान्यता है कि ‘‘कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास-प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकता।’’ यानि कवि, यदि अपने इर्द-गिर्द के संसार और जीवन को देख-परख कर उसे अर्थ देता है तो आलोचक और इतिहासकार कवि की इस रचना में अर्थ का संधान करता है और उसे संवद्धित करता है। रचना, आलोचना और साहित्येतिहास यों मानवीय जिजीविषा के, जीवन में अर्थ-संधान के क्रमिक चरण हैं। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा रचित पुस्तक ‘आलोचना का अर्थःअर्थ की आलोचना’ लोकभारती प्रकशन द्वारा सन् 2001 (प्रथम संस्करण) में प्रकाशित हुई। यह रचना वस्तुतः आचार्य शुक्ल पर केंद्रित है। यों तो आचार्य शुक्ल पर कई रोचक आलोचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। खासतौर पर नामवर सिंह द्वारा ‘चिंतामणि, भाग-3 की भूमिका’ (1983), डॉ. बच्चन सिंह द्वारा ‘आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुए’ (1989) तथा समीक्षा ठाकुर द्वारा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास की रचना प्रक्रिया’ (1996)। ये सारे अध्ययन अपने क्रम में उत्तरोत्तर विकसित होते गए हैं। हम भली-भाँति जानते हैं कि सामान्य भाषा व्याकरणों के नियमों से निर्धारित होती है और साहित्यिक भाषा अर्थ की श्रेणियों से बनती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी स्पष्ट करते हैं कि ‘‘भाषा की अस्पष्ट तथा बहुअर्थी प्रकृति के अनुकूल रचना में अर्थ की व्युत्पत्ति रचना और भावक के सहयोग में होती है .... और यह अर्थ व्युत्पत्ति देश-काल के अनुरूप निरंतर विकसित होती चलती है।’’
डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी हिन्दी साहित्य के एक बहुत बडे आलोचक थे, समीक्षक थे। नयी कविता और प्राचीन कविता पर उन्होंने बहुत बडा काम किया है। साहित्य की आलोचना करना भी उतनी सरल बात नहीं है। फिर डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी जी ने बडे धैर्य के साथ सभी काल की कविताओं पर आलोचना करके अपनी ज्ञान संपदा का प्रदर्शन किया है। “.......जब रामस्वरुप चतुर्वेदी अपने इतिहास में इस प्रश्न से टकरा रहे होते हैं कि आधुनिक काल के प्राय: बड़े हिंदी कवि गैर-खड़ी बोली क्षेत्र से क्यों आते हैं ? चतुर्वेदी जी दरअसल हिंदी या खड़ी बोली के बीच जिस विभाजन का प्रश्न उठा रहे हैं, वह मात्र इसलिए, क्योंकि वह हिंदी की जातीय चेतना को न देखकर उसे स्थान-विशेष की भूमि के रुप में ही देख रहे होते हैं।”
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की समीक्षा दृष्टि में आचार्य शुक्ल के इन तीनों दिशाओं की विवेचन को लक्षित किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आचार्य शुक्ल के साहित्य चिंतन में दो पक्षों का विशेष रूप से चिंतन किया है। एक साधारणीकरण और दूसरी बिंब-विधान। एक भारतीय काव्यशास्त्र का हृदय तो दूसरा पाश्चात्य आलोचना का केंद्रित स्थल है।
* उपसंहार :-
रामस्वरुप चतुर्वेदी जी की आलोचना दृष्टि बेहद रोचक है। क्योंकि प्रचीन काल की कविता हो आधुनिक काल की कविता हो सभी प्र आलोचना उन्होंने किया है, और यह काम शायद ही किसी ने किया होगा। प्रसाद, निराला, अज्ञेय के काव्यों पर बहुत ही सुंदर ढंग से आलोचना की है। भाषाशैली एवं भावना को बहुत ही महत्व दिया गया है। भक्तिकालीन कवि जैसे तुलसी , कबीर, सूर आदि के सैध्दांतिक पक्ष को लेकर भी आलोचना की है। भाषा पर ही इन्होने ज्या दा जोर दिया है क्योंकि साहित्य की महता भाषा पर ही टिकी हुई है। साहित्य की भाषा एवं संवेदना पर आलोचना करना या समीक्षा करना उतनी सरल बात नहीं है। इसीलिए तो रामस्वरुप चतुर्वेदी जी को एक श्रेष्ठ आलोचक मानते हैं। चाहे उनमें कुछ कमियाँ भी हो सकती हैं पर उनकी आलोचना दृष्टि अद्भुत थी। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी हिंदी के आलोचकों में उस स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने आलोचना को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर देखा-परखा है।
• संदर्भ :-
१. सम्मेलन पत्रिका, प्रयाग, अक्तुबर-दिसम्बर २०१४
२. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.20-
३. सृजनगाथा ब्लाग, दिनांक ६ फरवरी २०१५
४. नामवर संचयिता - नामवर सिंह पृ. १०३
५. नामवर संचयिता - नामवर सिंह पृ. १०३
६. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास - रामस्वरूप चतुर्वेदी पृ. २३४
७. नामवर संचयिता - नामवर सिंह पृ. १००
डॉ. सुनील कुमार परीट
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