दौड़ मत, धीरे-धीरे चल
दूर है मंज़िल जरुर,
पर मुश्किल नहीं है
वहां तक पहुँचना.
दौड़ मत, धीरे-धीरे चल ...
जानता हूँ ..
है नहीं तुम्हारे पास
कुछ खाने को...
लगी होगी भूख,
ठण्ड भी पड़ने लगी है
होंगे नहीं पहनने को
पर्याप्त कपडे भी,
चल रहे हो...
पर पास में गाड़ी नहीं
चाहे पड़े न हों
पैरों में छाले,
फिर भी जल्दी होगी
पहुँचने की मंज़िल तक ,
पर.., दौड़ मत , धीरे-धीरे चल .
राह में होंगे ...
रूप के आकर्षण बहुतेरे ,
चकाचौंध ऐश्वर्य की
दिखाकर दिवा-स्वप्न
तुझको लुभाएगी,
मृगतृष्णा धन-लिप्सा की
पल-पल
तुझे भटकाएगी,
मोहजनित मकडजाल
सत्ता और पद का
रह-रह कर तुझे उकसाएगा ....,
पर तू दौड़ मत
पाने के लिए...
उलझ जाएगा इस चक्रव्यूह में,
धीरे-धीरे चल....
दौड़ मत, धीरे-धीरे चल.
जान ले , पहचान ले
कोई नहीं है साथ तेरे
फिर मुझको बता यह एक बार
तू दौड़ता है किसलिए ?
किसके लिए तू दौड़ता है ?
सब बंधे हैं स्वार्थ से ..
अभिसार से ...,
मोह-माया में हो भ्रमित
भूल अपने को
भटकता है तू किसके लिए ?
जो तेरे थे साथ
छूटे कहाँ वे ?
हैं नहीं क्यों पास तेरे ?
स्वार्थ पूरा हो, न हो ....
सब छूट जाते हैं
बन कर अपने पराये,
फिर भागता है क्यों
उनके लिए ...
उस सबके लिए
जो हैं नहीं तेरा
होकर भी ?
दौड़ मत, धीरे-धीरे चल.
हो मंज़िल चाहे दूर
पा जाएगा वह भी एक दिन
यदि चलेगा तू
धीरे-धीरे ....,
दौड़ मत, धीरे-धीरे चल.
--डॉ. सुरेन्द्र यादव
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