Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कहती हो तुम – ‘देखो मुझे ‘, मैं कहता हूँ – ‘नहीं ‘.

 

कहता हूँ मैं कसम से –
‘हो तुम बहुत सलोनी ....
देख कर जिसे लजा जाए फूल भी ,
हवा में घुली महक भी हो जाए गंधहीन ,
नवरंगी इन्द्रधनुष जब भी देखे तुम्हें –
रंग सारे उसके हो जाए विवर्ण,
तुम्हारी मुसकान , तुम्हारी चाहत , तुम्हारा असीमित प्रेम
सब कुछ ...
है सामने मेरे अपने पूर्ण समर्पण के साथ ,
फिर भी कहता हूँ मैं – ‘नहीं प्रिये ! ‘
पूछती हो तुम आश्चर्य-से ...
’फिर कहा क्यों प्रिये ! जब कहना था तुम्हें नहीं ’.

 

सच ..उलझन है रूप तुम्हारा
है जो इन आँखों के इस ओर
माया है वह ...,सत्य होकर भी ‘भ्रम’
शाश्वत नहीं ..बस है केवल पल भर का
एक दीर्घ-भटकाव के बाद है वहाँ
फिर वही धुंध....वही पतझड़ ..वही अंधकार .
सब कुछ नश्वर ....

 

है प्रतिबिम्ब केवल
‘वर्तमान’ का यह ‘रूप’ तुम्हारा
यही तो ‘तुम’ भी कहती हो ---
‘जिओ आज ... केवल आज ....कल का क्या सोचना ?’
‘है भोग ही जीवन ...जीवन का करो उपभोग ‘
सुनकर मीठी-मीठी इन बातों को
कहता हूँ मैं फिर भी ...’नहीं’.

 

डरा नहीं हूँ मैं
चिंता भी नहीं कोई
हूँ दायित्वों से भी मुक्त
फिर भी सोचकर यह कि.....
कुछ और भी है इस इश्क के सिवा .
जब पूछोगी तुम ---‘क्या ?’
रह जाउँगा मुसकराकर केवल.

 

‘क्यों ?’
‘प्यार बंधन है जन्म-जन्मान्तरों का ‘
कहा सभी ने यह
पर अब नहीं यह बात
प्यार केवल ‘छल’ है
छलते भी हैं हम अपने को
और
छले भी जाते हैं हम अपने-से ही .

 

सदा ही देखा जाता है
देता है कौन किसे कितना ....
ऐश्वर्य, स्वतंत्रताजनित सुविधा
और
भोग-भीगी देह की सम्पूर्णता ,
नहीं तो ....
गुनगुनाते रहिए ...
‘तू नहीं , गम नहीं , शराब नहीं
ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं !

 


---डॉ. सुरेन्द्र यादव

 

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