''मम्मी बुला रही है '' कहा यह उसने
'नहीं है आज मुझे
जीने की तमन्ना कोई
और है नहीं कोई
मरने-मारने का इरादा भी''
लिखा जब मैंने 'इनबॉक्स' में यह
पूछा तब मेरी एक अपरिचित-सी मित्र ने ...
''क्यों ? क्या हो गया है जनाब को ?"
कहा मैंने कुछ यूँ ही अनमने-से --
''क्या करेंगे जी कर और मर कर ,
जिसे देखो ..वही तो भाग रहा है ...
दौड़ रहा है बेपनाह ..
धन-लिप्सा में अँधा होकर दिशाहीन
पद-लिप्सा में मदांध होकर कर्तव्यहीन
रूप-लिप्सा में कामांध होकर संस्कारहीन ''
'' खड़ा हूँ मैं दोराहे पर ....
धकेल कर पहुँचा दिया गया हूँ चौराहे पर ,
प्रगति और अंध-श्रद्धा के बीच
गुम हो गया है मेरा गंतव्य
छूटने लगे हैं मेरे अन्तरंग ,
देखो जिसे भी ....
है वह एक चस्पा किया हुआ पोस्टर
किसी उपेक्षित-सी दीवार पर ,
मुसकराहट है उसकी
जैसे खरीदी या उधार ली हुई फीकी-फीकी सी,
'आने लगा है शक्तिहीनता का नैराश्य-बोध
उफनते हुए पानी में नदी के,
बंधा है जीवन
उन्मुक्त होने के दिशाहीन भ्रम-जाल में ''
मैं कहता कुछ और
पहले ही उसके
लिख दिया मेरी पेशानी पर उसने ,
आती हूँ अभी पाँच मिनिट में ....
मम्मी बुला रही है.
-- डॉ.सुरेन्द्र यदव
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