सन्दर्भ 'समय' का ......
रहा है सदा से एक अबूझ 'पहेली' .
कहते हैं प्रायः सभी, यह कि -
'समय' बदलता है
'समय' बलवान है
'समय' यह करता है ...'समय' वह करता है,
कहते हैं यह भी कि ....
'वह' यह कराता है , 'वह' वह कराता है
किन्तु .....,
समझता जहाँ तक हूँ मैं
'समय' तो है 'निराकार'
'शून्य' है वह !
न रंग, न रूप , न शब्द , न स्पर्श.....!!
कोई बतलाए मुझे --
परिवर्तनशील फिर 'वह' कैसा ?
करता है 'कर्म' तो सदा 'मनुष्य' ही
अच्छे या बुरे .. हों जो भी .जैसे भी
आते हैं परिणाम भी ....
अच्छे या बुरे ..जो भी
पर क्यों ले जाता है श्रेय उन-सबका 'समय' ?
या फिर दे दिया जाता है दोष सारा 'समय' को ??
विज्ञान हो या पर्यावरण
मनुज के आचार हों या उसके अच्छे-बुरे कर्म .....
परिणाम आता है जब .....
कहते हैं सभी तब....
फेर है यह 'समय' का .
'समय' तो है सदृश्य या सादृश्य उस 'परमात्मा' का
देखा नहीं जिसे किसी ने आज तक भी,
अनुभव किया है जरुर उसे किसी-किसी ने
होने या न होने पर भी समय-असमय !
जैसे 'डर' होता है अंतर्भूत
समाया हुआ अपने अंतर्मन में
अभाव में अपने-ही आत्म-बल के,
हो सकता है ....
रहस्य भी हो वैसा ही...
उस 'अदृश्य' का, उस 'समय' का !
'समय' तो वैसा ही है....
जैसा न होकर भी वह जैसा है,
होता तो सदा 'मनुष्य' ही है
कमजोर अथवा बलवान ...
है वही परिवर्तनशील सदैव ,
अर्जित या अन्वेषित शक्तियाँ उसी की
लाती हैं परिवर्तन
प्रकृति में, पर्यावरण में
और
उसके-अपने आचरण में
उसके-अपने गढ़े मूर्त-अमूर्त प्रतिमानों में.
बोता भी वही है
वही है काटता भी
और.....
भोगता भी वही है ...!
समझकर भी सब-कुछ
वह कुछ भी नहीं समझता है,
कदाचित समझना भी नहीं चाहता !!
---डॉ. सुरेन्द्र यादव,
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY