Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सोच रही हो क्या 'मन' में

 

मन-ही-मन क्या सोच रही हो
सोच-सोच क्यों खोज रही हो
मन में अपने ...
मन में बिखरे-बिखरे कुछ
अनछुए-से मन के
कोमल- कोमल, मीठे-मीठे प्यारे सपनें ...

 

 

क्यों सुन रही हो वह-सब
मन-ही-मन में अपने
जो कहा नहीं था मैंने ?
पर सुन रही हो वह-सब
अपने ही अंतर्मन में
जो रहा अनकहा मन में.

 

 

भूले-बिसरे-से ये पल
कभी-कभी ही खिलते हैं
अनछुए फूल-से जीवन में ,
चाह यदि हो मन में मन-भर
देख-दिखा लो जी-जी भर कर
अपने मन की आँखों से,

 

 

हो सकता है मुरझा जाएँ
असमय 'समय' के झंझावातों से
आज नहीं तो कल ...,
फिर 'कल' के 'कल' का इंतज़ार क्यों ?
इंतज़ार की मोह-निशा में बेसब्री-से
मुझ 'गरीब' के आ जाने का इंतज़ार क्यों ?
इंतज़ार की मधुरंजित वेला में
मुझ 'अकिंचन' से अनुरागी मनुहार क्यों ??

 

 


___डॉ. सुरेन्द्र यादव

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