बूढ़े पेड़ के पास का पोखर
सूखा था कल तक ,
रात के सन्नाटे में
सुनकर पुकार दर्द से विव्हल पंछी की
चाँद के आँसू बहे जब ओस बनकर
सुबह देखा तो
पोखर लबालब भरा हुआ था पानी से.
ओट में सूखे पत्तों की
तिनकों से बने एक जर्जर-से घोंसले में
ठिठुरता हुआ ठण्ड से
बैठा था कातर-सा वह नन्हा पंछी,
गए थे पिता उसके
लाने उसके लिए कुछ खाने को ....
लौटे नहीं थे वह भी दो दिनों से.
कुछ दिन पहले ही माँ उसकी
बेबसी में बन गई थी
किसी क्रूर बहेलिए का शिकार.,
नैराश्य-अन्धकार में
था अकेला-सा वह
भूख से सिसकती रात
असहाय-सा अकेला पेड़ ...
नहीं कोई आसपास
था दूर-दूर तक नीरव सन्नाटा.
देख रहा था टकटकी लगाए
दूर-दूर तक वह पंछी नन्हा-सा
अकस्मात आ जाने वाले
अपने किसी आत्मीय की प्रतीक्षा में....... !
---डॉ, सुरेन्द्र यादव , इंदौर
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