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लोक साहित्य -प्रेम और संस्कृति का संवाहक

 
लोक साहित्य -प्रेम और संस्कृति का संवाहक
डॉ सुशील शर्मा

सृष्टि के आरंभिक काल में जब मनुष्य अपना जीवन प्रकृति की गोद में व्यतीत करता था। उस समय प्रकृति की भांति ही उसका आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान आदि सरल, सहज और स्वभाविक था। वह बाह्य आडम्बर और कृत्रिमता से कोसों दूर था। अपनी दैनिक जरूरत की वस्तुएं प्रकृति से प्राप्त करता था। वास्तव में मनुष्य का आदिम जीवन ही लोक साहित्य की मूल आधार भूमि है। आरंभिक काल में मनुष्य का जीवन मूल रूप से अस्तित्व के लिए संघर्षरत था। संघर्ष का कारण अपनी अस्मिता, आत्मरक्षा एवं अस्तित्व की रक्षा करना था। यह संघर्ष एक ओर जीवित रहने की थी तो दूसरी ओर अपनी बुनियादी आवश्यकताओं एवं परंपराओं को विकसित करने तथा उसे बनाये रखने की थी। उनके सामने अनुभव से प्राप्त ज्ञान, भावनायें, उनके विश्वास और आदर्श को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने की चुनौती थी। उन्हें चिंता थी कि अपनी विकसित और अर्जित ज्ञान को कैसे संरक्षित किया जाए और अगली पीढ़ी तक कैसे हस्तांतरित किया जाए? मनुष्य के उक्त दोनों ही परिस्थिति ने उनके मानसिक स्थिति को प्रभावित कर रहा था। वह इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ था कि बाह्य संघर्ष और भितरी सरोकार के संदर्भ में उनके जीवन को मूल चुनौती देने वाली प्रमुख सत्ता थी प्रकृति। प्रकृति समय-समय पर सदैव उसके जीवन को प्रभावित करती रहती थी। प्रकृति के साथ जीवन व्यतीत करने के बावजूद वह उसके असीमित शक्ति और रहस्यों से अनजान था। परंतु समय के साथ वह अपनी चेतना को चुनौती देने वाली अदृश्य शक्तियों का अवलोकन करने में सक्षम हो पाया। इसका मूल कारण मनुष्य के मन में सदेव आवेगों का संचार होना था। मनुष्य का मन सदा ही नई-नई चीजों को देखने, पहचानने तथा उसे समझने हेतु सदैव विचलित रहता था। परिणाम स्वरूप उसके मन में राग मूलक और भयमूलक प्रवृत्ति का संचार हुआ।

लोक साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का वाहक तो होता ही है, समकालीन समाज की जनता को आपस में जोड़ने का साधन भी है, और परवर्ती काल की जनता को पूर्व की सामाजिक संरचना, रहन-सहन, आचार-विचार, आहार-व्यवहार, कला-संस्कृति आदि की जानकारी देने वाला माध्यम भी। लोक साहित्य के उद्देश्य और प्रयोजन पर बड़े-बड़े प्राच्य आचार्यो ने बड़ी-बड़ी बातें की हैं। ‘काव्यं यशशेर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये सद्यःपरिनिवृतये कान्तासम्मित्तयोपदेशयुजे’ जैसी कई बातें कही गई हैं। पर पाठकों, श्रोताओं, प्रेक्षकों की दृष्टि से, और जरा लीक से हटकर सोचें तो जनता के जीवन में इसके उपयोग की दृष्टि से, यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि साहित्य बहुआयामी प्रयोजन की चीज है--यह मनोरंजन का साधन है, उपदेश का माध्यम है, सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक इच्छा-आकांक्षाओं और भावुकताओं को तृप्त करने का सम्बल है, जश्न मनाने का एक तरीका है, भयमुक्त होने का हमसफर, हमकदम है, साहस बटोरने, क्रोध जगाने, आक्रोश पैदा करने और विद्रोह करने का संसाधन है, क्रान्ति का अगुआ है और विद्रोह का झण्डा है.
लोक साहित्य के विविध रूपों पर हक्पात करना अप्रासंगिक न होगा। मोटे तौर पर हम इस साहित्य को तीन रूपों में प्राप्त करते हैं एक-कथा, दूसरा-गीत, तीसरा-कहावतें आदि। लोककथाओं की विभेदता भी तीन रूपों मेें मानी जाती है- धर्मगाथा,लोकगाथा तथा लोक कहानी। धर्मगाथा (माईथालाजी) पृथक अध्ययन का विषय है। शेष कथा के दो भाग रह जाते है लोकगाथा तथा लोक कहानी। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने इन दोनों का पृथक-पृथक अस्तित्व स्वीकार करते हुए लोक साहित्य को चार रूपों में बांटा है एक-गीत, दूसरा-लोकगाथा, तीसरा-लोककथा तथा चौथा-प्रकीर्ण साहित्य जिसमें अवशिष्ट समस्त लोकाभिव्यक्ति का समावेश कर लिया गया है।
वैसे तो धर्मगाथाएँ पृथक अध्ययन का विषय है किन्तु लोक-कहानी और धर्मगाथा में जो विशेष अन्तर आ गया है उसे समझ लेना अहितकर न होगा। धर्मगाथा अपने निर्माण काल में एक सीधी-सादी लोक-कहानी ही होती है परन्तु उस कहानी में धर्म की एक विशेष पुट लग जाती है जो उसे लोक-कहानी के वास्तविक आधार से पृथक कर देती है। डॉ. सत्येन्द्र ने इस ओर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि धर्मगाथा स्पष्टत: तो होती है एक कहानी पर उसके द्वारा अभीष्ट होता है किसी ऐसे प्राकृतिक व्यापार का वर्णन जो उसके सृष्टा ने आदिम काल में देखा था ओर जिसमें धार्मिक भावना का पुट होता है। ये धर्म गाथाएँ हैं तो लोक साहित्य ही, किन्तु विकास की विविध अवस्थाओं में से होती हुई वे गाथाएँ धार्मिक अभिप्राय: से संबद्ध हो गयी हैं। अत: लोक साहित्य के साधारण क्षेत्र से इनका स्थान बाहर हो जाता है और यह धर्मगाथा संबंधी अंश एक पृथक ही अन्वेषण का विषय है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'दि क्वीन ऑफ दि एअरÓ में जॉन रस्किन ने धर्मगाथा की मीमांसा देते हुए लिखा है कि यह अपनी सीधी-सादी परिभाषा में एक कहानी है जिससे एक अर्थ संपृक्त है और जो प्रथम प्रकाशित अर्थ से भिन्न है।

प्रेम मानव हृदय की पराकाष्ठा है।प्रेम में श्रद्धा के साथ-साथ रागात्मक वृत्ति भी अंतर्निहित होती हैं।प्रेम विशेषोंमुख होता है।प्रेम की सफलता तुल्यानुराग में है परन्तु कभी-कभी प्रेम भी उच्च भूमि पर प्रतिष्ठित देखा जाता है।प्रेम की इस उच्च भूमि पर पहुँचकर प्रेमी प्रिय से कुछ नहीं चाहता।गोस्वामी तुलसीदास ने 'चातक-प्रेम' में इसी प्रेम को स्वीकार किया है।प्रेम के इस उच्चादर्श पर पहुँचकर प्रिय के सुख में प्रेमी अपना सुख समझने लगता है।साहचर्य भाव से प्रेम की पूरी तीव्रता देखने को मिलती हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध 'लोभ और प्रीति' में प्रेम के दो स्वरूप स्वीकार किये हैं - एक एकांतिक प्रेम और दूसरा लोक-व्यापक प्रेम।एकान्तिक प्रेम में दो व्यक्तियों का स्वतन्त्र हृदय से सम्बन्ध रहता है।उनका लोक के व्यापक क्षेत्र से कोई संबन्ध नहीं रहता।गोपियों के प्रेम में इसी प्रकार के प्रेम की प्रतिष्ठा है।लोक- व्यापक प्रेम का जगत में विस्तार होता है, प्रेमी भक्त अपने प्रभु को समस्त विश्व में व्याप्त समझकर सृष्टि के समस्त चराचर से प्रेम करता है।आचार्य शुक्ल ने इसी प्रेम को लोक मंगल के रूप में स्वीकार किया है।लोक व्यापक प्रेम,कर्म-क्षेत्र में उत्साह से बढ़ने की प्रेरणा देता है।प्रेम का यही लोक-व्यापक रूप 'राम' की ओर ले जाने वाला है।
किन्नौरी लोकगीतों में कुंवारी लड़कियों को पूर्णिमा का चांद, पर्वतीय-पुष्प इत्यादि की उपमा दी गई है। जैसे ‘माईटे छेसछाङ् बङ्गी गोलसङ् देस’। किन्नौरी लोकगीतों में स्त्री-जीवन का अत्यंत मार्मिक चित्रण प्राप्त होता है। इनमें ‘युमदासी’ का गीत प्रसिद्ध है। सास ने युमदासी को, जिसने अभी-अभी बच्चे को जन्म दिया था, उसकी इच्छा के विपरीत चरागाह भेजा। ढाई महीने भेड़-पालन के पश्चात वह बीमार पड़ गई। मृत्यु-शय्या पर भी उसे केवल अपने बच्चों की चिंता थी। यह गीत स्त्रीवेदना के साथ उसकी ममता का भी बोध कराता है। विवाह संबंधित गीतों में बेटी को विवाहोपरांत समाज में तथा ससुराल में कैसे व्यवहार करना है, इस प्रकार की बातें पिरोई गई हैं। किन्नौर में बहुपति तथा बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलित रही है। इससे संबंधित एक गीत ‘कृशनमोनी’ का है। कृष्णमणि का विवाह पूह गांव के दो भाइयों से हुआ था जिनमें उसे बड़ा भाई गुरकुमराम प्रिय था। गुरकुमराम व्यापारी था, इसीलिए व्यापार के लिए तिब्बत जाया करता था। मार्ग अत्यंत दुर्गम होने पर भी कृष्णमणि के आग्रह पर गुरकुमराम उसे साथ ले गया। तिब्बत पहुंचकर बीमारी से गुरकुमराम की मृत्यु हो गई। साहसी कृष्णमणि पूर्वाह्न में पति का दाह-संस्कार कर अपराह्न में व्यापार करती है। यह लोकगीत स्त्री के वास्तविक प्रेम तथा उसके साहस को दर्शाता है। स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसके साथ कठिनतम मार्ग पर भी चल सकती है।
कांतिकता और लोकोन्मुखता प्रेम के दो विभिन्न रूप हैं।एकांतिक प्रेम का क्षेत्र प्रेमी और प्रेमास्पद के जीवन तक ही सीमित रहता है तथा उसका लोक जीवन से कोई संबंध नहीं रहता।सूफी कवियों(जायसी आदि) की रचनाओं में प्रेम के एकान्तिक पक्ष की अधिकांशतः व्यंजना हुई है।सूरदास की गोपियां भी एकांतिक प्रेम के उत्कर्ष को प्रदर्शित करती हैं।एकांतिक प्रेम की साधना में जगत के पक्षों से बिना किसी प्रयास के ही वैराग्य हो जाता है।यह एकांतिक प्रेम की महत्वपूर्ण विशेषता है।एकांगी प्रेम का चित्रण उर्दू की शायरी में भी बहुतायत देखने को मिलता हैं।उर्दू की रचनाओं में प्रेम का पक्ष स्पष्ट रूप में चित्रित हुआ है।इस एकांगी प्रेम का भी भारतीय साहित्य में कुछ कम महत्त्व नहीं है।
लोक साहित्य हमेशा प्रतिपक्ष का साहित्य होता है. वह व्यवस्था विरोध का साहित्य होता है. वस्तुत: किसी भी समाज में भाषा के तीन स्तर होते हैं, एक शासक वर्ग की भाषा जिसके माध्यम से मुख्यत: शासन संचालित होता है तथा जिसमें तथाकथित शिष्ट साहित्य का सृजन होता है, दूसरा स्तर जातीय भाषाओं का होता है और तीसरा जनपदीय भाषाओं और बोलियों का. ये स्तर भेद वैसे ही होते हैं जैसे समाज में वर्ग भेद. कहने के लिए समाज दो वर्गों में बँटा है -शोषक और शोषित. परन्तु इन दोनो वर्गों के बीच एक मध्य वर्ग भी होता है. इतिहास में इस मध्य वर्ग के चरित्र की बड़ी आलोचना की गई है- इसकी ढुलमुल नीति को लेकर.

बहरहाल, सबसे निचले स्तर पर जनपदीय भाषाओं अथवा बोलियों में रचा गया साहित्य होता है जिसमें बहुसंख्यक समाज की भावनाएं अभिव्यक्त होतीं हैं. यह साहित्य ज्यादातर मौखिक होता है. इसे ही लोक साहित्य कहते हैं क्योंकि मौखिक परंपरा से संचित होने के कारण अमूमन इसके रचनाकारों के बारे में पता नही होता. यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी जरूरी है कि आज की बोलियां कही जाने वाली जनपदीय भाषाएं भी उतनी ही पुरानी हैं जितनी की कोई भी जातीय भाषा.

लोकभाषाओं में संचित लोक साहित्य और शासक वर्ग की भाषा में रचित शिष्ट साहित्य के बीच का चरित्रगत भेद उसके साहित्य में साफ दिखायी देता है भले ही उसपर अभी पंडितों की पैनी और वैज्ञानिक दृष्टि न पड़ी हो. लोक साहित्य बहती नदी के समान होता है, फलत: बहने के क्रम में धारा बहुत कुछ छोड़ देती है और इसी तरह नए तत्वों को अपने साथ बहाकर ले भी जाती है. लोक अपने आनंद में उसी तरह उत्फुल्ल होता है जैसे प्रकृति होती है. इसीलिए लोक का रचनात्मक आनंद कहीं भी व्यक्तिगत नहीं है. इस आनंद पर सबका अधिकार है. लोक गायकी में व्यक्तिगत गायकी है ही नही. औरत और पुरुष सामूहिक रूप से सोहर, फाग, कजरी, चैता आदि गाते हैं. अनेक सुरों की एकतानता से न किसी का अहंकार व्यक्त होता है न किसी की हीनता.

लोक की समस्त जीवन पद्धति और उसकी समस्त कला संरचनाओं का मूल लक्ष्य सत्य के करीब पहुँचने के साथ आत्म-मुक्ति के आनंद को प्राप्त करना होता है. अपनी भावनाओं के विस्तार के लिए उसने प्राकृतिक उद्दीपनों को अपनी काव्य चेष्टाओं में अभिव्यक्त किया है. वसंत, वर्षा, शरद्, ग्रीष्म आदि के अनुभवों ने उसके भीतर जो संवेदनाएं जागृत कीं उन्हीं संवेदनाओं के परिणाम स्वरूप उसने लोक कलाओं के स्फुरणों को समेटा है. चांचर, फाग, धमार, कजरी जैसी लोक गायकी में ऋतु उद्दीपनों के साथ जैविक अनुभूतियों की अनुगूंज भी लय संरचना के रूप में रही होगी. उसके विषय वृत्त में क्रमश: फैलाव आता गया.

लोक और शिष्ट समुदाय के वाद्य भी अलग-अलग हैं. हुड़का, करताल, झाझ, मृदंग, ढोलक, नगारा, मजीरा, झाल, खजड़ी, सिंघा आदि प्रचलित लोक वाद्य हैं.

भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है. रामविलास शर्मा ने इस काव्य को लोक जागरण का काव्य कहा है. यह लोक जागरण का काव्य भी वास्तव में लोक काव्य ही है. इसे लोक साहित्य के भीतर रखा जाना चाहिए. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो हजारी प्रसाद द्विवेदी का हवाला देते हुए हिन्दी के समूचे संत साहित्य को लोक साहित्य के भीतर समाविष्ट करने का प्रस्ताव किया है. वे लिखते हैं, “हिन्दी साहित्य के निर्माण में लोक साहित्य के तत्व प्रचुर परिमाण में पाए जाते हैं. अत कुछ विद्वानों के मतानुसार इन्हें लोक साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस विषय में गंभीर विवेचन करते हुए लिखा है, “इन मध्य युग के संतों का लिखा हुआ साहित्य – कई बार तो यह लिखा भी नहीं गया, कबीर ने तो ‘मसि कागद’ छुआ ही नही था – लोक साहित्य कहा जा सकता है या नहीं? क्यों कबीर की रचना लोक साहित्य नहीं है? सच पूछा जाय तो कुछ थोड़े से अपवादों को छोड़कर मध्ययुग के संपूर्ण देशी भाषा के साहित्य को लोक साहित्य के अंतर्गत घसीटकर लाया जा सकता है.” ( जनपद, वर्ष-1, अंक-1, पृष्ठ-71). महापंडित राहुल सांकृत्यायन की तो स्पष्ट मान्यता है कि, “हमारी सम्मति में हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल तथा भक्तिकाल की अधिकांश रचनाओं को लोक साहित्य में अंतर्भुक्त किया जा सकता है.” ( हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास, षोडश भाग, संपादकीय, पृष्ठ-15)

बहरहाल, इस मुद्दे पर विवाद हो सकता है किन्तु भक्ति कालीन साहित्य का लोक साहित्य से अनिवार्य और अविभाज्य संबंध से इनकार नही किया जा सकता. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरसागर के गीतों का वैशिष्ट्य निरूपित करते हुए संभावना व्यक्त की है कि उनका संबंध लोकगीतों की मौखिक परंपरा से था. वे लिखते हैं, “इन पदों के संबंध में सबसे पहली बात ध्यान देने की यह है कि चलती हुई ब्रज भाषा में सबसे पहली साहित्यिक रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परिमार्जित हैं. अत: सूरसागर किसी चली आती हुई गीत काव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो -पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है.” ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 113)

निस्संदेह हम कह सकते हैं कि लगातार मिटते रहने के बावजूद आज भी लोकगीतों, लोकगाथाओं, लोककथाओं, लोकनाट्यों और लोकोक्तियों-कहावतों आदि के रूप में विशाल साहित्य हमारे यहां मौजूद है जो पूरी तरह प्रतिपक्ष का साहित्य है, शोषित वर्ग का साहित्य है. उसमें अभाव का दर्द और दुख की टीस जरूर है किन्तु उल्लास की जीवंतता भी है.

लोकोन्मुख प्रेम उदात्त स्वरूप से युक्त होता है।प्रेमानुरागमयी आभा सर्वत्र छिटकी दीखती हैं।स्नेह के अलौकिक प्रकाश से अखिल विश्व उद्भासित हो उठता है।प्रेमी प्रेमास्पद को सम्पूर्ण जगत की सापेक्षता में देखता है तथा संसार के विकीर्ण सौंदर्य की अनन्त राशि का उपभोग करता है।भारतीय साहित्य लोक-जीवन से संश्लिष्ट प्रेम को ही प्रधानता देता है।प्रेम की यह अलौकिक प्रभा जीवन के समस्त आयामों में सुरुचिकर प्रभाव डालती हैं तथा दुःखों एवं क्लेशों के भार को कम करती है और जीवन को सुसह्य बनाती है।

आचार्य शुक्ल ने लोक संश्लिष्ट प्रेम की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है क्योंकि इसका आनन्दकारी प्रभाव जीवन में अभिनव गति कर्म के लिए नूतन प्रेरणा प्रदान करता है।वस्तुतः लोक-संश्लिष्ट प्रेम की प्रेरणा से ही विद्वान की बुद्धि, कवि की प्रतिभा, चित्रकार की कला, उद्योगों की तत्परता तथा वीरों के उत्साह में विकास और वृद्धि होती हैं।जीवन को उसके समग्र रूप में देखने वाला व्यक्ति निश्चय ही उस व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है जो समस्त संसार को दो प्राणियों के भावानुभाव में संकुचित कर देखता है।
समाज की दृष्टि से प्रेम और प्रेम की दृश्टि से समाज को देखना मात्र प्राथमिकता का बदल जाना नहीं है, अपितु व्यक्ति-समाज के द्वैत…द्वन्द के साथ ही कथानक के बनने-ढलने की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। क्लासिक रचनाओं का प्रेम-चित्रण सामाजिक परिवृत्त की बनावट में मानवीय-रोमानी अनुभूति के बनने की प्रक्रिया को उद्घाटित करता है। स्त्री-पुरूष के प्रेम-संबंध की प्रगाढ़ता उसके व्यक्तित्व को धीर-त्यागमय उत्कर्ष और औदात्य से कैसे भर देती है, यह इन प्रसंगों के माध्यम से जाना जा सकता है। गीतिपरक रचनाओं में प्रेम की दृष्टि से समाज (कथ्य-कथानक) को देखने का प्रयास होता है। व्यैक्तिक अनुभूतियों की गति-उमंग-उल्लास को कथ्य (आश्रय-आलम्बन यानी इत्यादि…) में ढालना पड़ता है। कथ्य और अनुभूति का प्रवाह जहां कुछ देर…दूर तक निभ जाता है, वहां प्रबन्ध रूप में प्रेम-चित्रण होता है और जहां कथ्य से अनुभूति का सम्बन्ध बनता-टूटता (पूर्ण) रहता है। वहां मुक्तक विधान में प्रेम-चित्रण संभव हो पाता है। गीतात्मकता में भावों का ‘नृत्य’ होता है और प्रबन्ध में ‘भावों का अनुशासन’, स्वाभाविक है कि नृत्य में लय और अनुशासन में स्थिरता, सघनता का आधिक्य हो…।
लोक साहित्य आदिम जीवन से लेकर सभ्यताओं के स्थापना काल तक में अनुभव किये गये ज्ञान का संचित भंडार है। लोक साहित्य में निहित इन ज्ञान और अनुभवों को सम्पूर्ण समुदाय ने अपनाया। यह संचित ज्ञान मौखिक रूप से हस्तांतरित होते हुए सदैव उनके साथ रहा। हस्तांतरण के दौरान इसमें लगातार नये-नये तथ्य, ज्ञान, अनुभव, विचार आदि जुड़ता गया और यह अथाह सागर की भांति विशाल रूप धारण कर लिया। इसमें मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक ही सम्पूर्ण अध्याय समाहित है। अर्थात् लोक साहित्य आदिकाल से लेकर अब तक की उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक है, जो मानव स्वभाव के अंतर्गत आती है। उनकी यह स्वभाव अत्यंत सरल और सहज होता है। इसमें कोई बनावट नहीं होती। इसमें सामान्य जन की अनुभूतियों, भावनाओं एवं विचारों आदि की सहज और स्वभाविक अभिव्यक्ति है।
लोक साहित्य की अपनी विशिष्टता है। लोक संस्कृति का जैसा सचिव चित्रण इस साहित्य में दृष्टिगत होती है, वह अन्यत्र नहीं है। लोक साहित्य का भाव सम्पूर्ण लोक की मंगल कामना के रूप में अलंकृत होती है। इसमें जन मानस की भावनाओं में, उनके चेतनाओं में जड़-पदार्थ भी जीवित हो उठते हैं। सम्पूर्ण वसुंधरा के जीव-जंतु मानव की भाषा बोलने लगते हैं। इस संबंध में डॉ- सत्या गुप्ता का कहना है कि - ‘‘लोक साहित्य में ऐसा समाजवाद है, जहां ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का सर्वोच्च उदाहरण है। वहां जड़-चेतन, देवी-देवता, मनुष्य-दानव सब ही एक तल पर आ जाते हैं।’’ लोक साहित्य अनेकों भाषाओं एवं संस्कृतियों में अलग-अलग होने के बावजूद भी इसके मूल भाव तत्व में कोई परिवर्तन नहीं होता। यह अनेकता में एकता की भावना से युक्त होता है।


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