-डाॅ.टी.पी.शाजू
हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों की एक सशक्त परंपरा विकसित हुई है । हिन्दी में इस परंपरा की शुरुआत सबसे पहले किशोरीलरल गोस्वामी ने की है । आगे चलकर वृन्दानलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, जयशंकर प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, यश्पाल, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, चतुरसेन शास्त्री, अमृतलाल नागर, नरेन्द्र कोहली आदि शीर्षस्थ रचनाकारों ने इस विधा को अधिक सशक्त और लचीला बनाया है ।
ऐतिहासिक उपन्यास अतीत के संदर्भ में वर्तमान का ऐसा अध्ययन है जिसमें अतीत अपने वर्तमान संदर्भ के पर्याप्त संकेतों सहित प्रकट होता है । श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य, समाज और भाषा के साथ राष्ट्र की अविचल संपत्ति है, जो आनेवाली पीढी को अतीत के तमाम राजनीतिक, सामाजिक, साॅंस्कृतिक एवं आर्थिक परिदृश्यों का परिचय कराता है । इस दृष्टि से ऐतिहासिक उपन्यास को साॅंस्कृतिक उपन्यास की कोटि में भी रखा जा सकता है । इसमें मनुष्य का जीवन अपने संपूर्ण राग-विराग के साथ पुनःर्जीवित होता है ।
ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास की गहराई, इतिहास और कथा की समर्थ पारस्परिकता, मिथकों का प्रयोग, विश्वासोपार्जन की क्षमता, विषयगत संपन्नता, समृद्ध मानवीय दृष्टि आदि गुण विद्यमान रहते हैं । इस दृष्टि से ऐतिहासिक उपन्यास अलग-अलग प्रकार के भी होते हैं, क्योंकि कहीं-कहीं कुछ तत्व हावी रहते हैं तो कुछ गौण । अतः ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास और कल्पना का समावेश, चाहे इसका अनुपात जैसा भी हो, अत्यंत अनिवार्य है ।
इतिहास को उपन्यास का आधार बनाकर जब ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने कलात्मक कार्य में प्रवृत्त होता है तब वह अनुमानों की अपेक्षा कल्पना पर आधारित संभाव्य सत्य को ही प्रश्रय देता है । जैसे कि उपन्यासकार द्वारा मानव स्वभाव, उसके भावलोक और उसकी अन्यान्य विशिष्टताओं पर दृष्टि रखकर इतिहास सत्य के चारों ओर एक ऐसे कथानक की रचना करता है जिससे पाठकों को आस्वादन की एक नई भावभूमि प्राप्त हो जाती है ।
’ऐतिहासिक उपन्यास इतिहास और कथा की पुरातन समीपता की नूतन समन्वयात्मक अभिव्यक्ति है, जिसके पीछे युग-युग के अतीतोन्मुखी संस्कार निहित है । उसकी उत्पत्ति विगत आत्मविस्तार की आन्तरिक वृत्ति से हुई है । कथा की कोई भी कल्पना विगत अथवा ऐतिह्य से उसीप्रकार अपने को सर्वथा मुक्त नहीं कर सकती, जिसप्रकार इतिहास अपने को कल्पना से पृथक नहीं कर सकता’ ;डाॅ. जगदीशगुप्त-आलोचना विशेषंाक, अक्तूबर 1954, पृ.78 । डाॅ. जगदीशगुप्त का कथन इसलिए सही है कि इतिहास की काल्पनिक स्थितियों पर उनका ज़ोर है । साथ ही साथ ’जीवन का कोई भी प्रसंग विगत या ऐतिह्य से मुक्त नहीं है’-इस कथन में ऐतिहासिक उपन्यास संबंधी कई बातें गुंफित हैं ।
विषय चयन में ऐतिहासिक उपन्यासकार अपना विकल्प ही ढूॅंढता है । कल्पना उसके विकल्प का आधार है जो उसकी मौलिक उद्भावना है । लेकिन तभी वह प्रासंगिक और मुल्यवान है जब वह इतिहास के चयन के अनुकूल हो । अतः वह एकदम विच्छिन्न होकर अग्रसर नहीं हो सकती और इतिहासाश्रित कल्पना वैभव का महत्व ही दरअसल ऐतिहासिक उपन्यास केलिए वांछित है ।
इतिहास का मानवता के साथ अटूट संबंध है और सभ्यता के आरंभ के साथ हमारा इतिहास भी शूरू होता है । यानी संपूर्ण मानव जाति इतिहास में शामिल है । आदिकाल से भिन्न भिन्न जातियाॅं, धर्म और विचारधाराएॅं किसप्रकार कार्य करती आ रही थीं और वे उज्ज्वल भविष्य केलिए कैसे जागरूक है, इनका संकेत इतिहास देता है । रमेश कुन्तल मेघ जी के शब्दों में ’निस्संदेह इतिहास मानवता का एक उज्ज्वल देवालय है, जहोॅं जनता, राजवंश, घटनाएॅं, राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाएॅं, उनका आदर्श, संस्कृति, रहन-सहन आदि मूर्तिवत् स्थान पाते हैं ’ ;नागरी प्रचारिणी पत्रिका, 1964, पृ.51
इतिहास से हम विभिन्न प्रकार की प्रेरणाएॅं प्रप्त कर सकते हैं, क्योंकि इतिहास में हम मनुष्य के कार्यकलाप, व्यवहार, आचार-विचार, चिंतनशीलता तथा चेतना शक्ति का प्रकटीकरण पाते हैं । ऐतिहासिक उपन्यासकार का वास्तविक ज़मीन यही इतिहास है और वहीं खडे रहकर उपन्यासकार अपनी एक अलग ज़मीन तलाशने लगते हैं जहाॅं वह अपनी मौलिक प्रतिभा का प्रदर्शन कर सके । अतः उसे अपनी कल्पना-शक्ति का भरपूर प्रयोग करना पडता है ।
सृजनात्मक कल्पना ऐतिहासिक उपन्यास का उदात्त तत्व है और कल्पना का सीधा संबंध संवेदना से है । अतः संवेदनानुभूति, रागात्मकता और साहित्यिक सौष्ठव के दर्शन केवल ऐतिहासिक उपन्यास में हो सकते हैं, इतिहास में नहीं । इतिहास में ऐतिहासिक तथ्यों का एक विशेष क्रम रहता है और इतिहास के संदर्भ में अपनी संरचनात्मकता भी है, परन्तु वह सृजनात्मक नहीं है । लेकिन ऐतिहासिक उपन्यास जो संसार रचता है वह सृजनात्मक है, भले ही उसमें कल्पना की अधिकता क्यों न हो । यह उसके सृजनात्मक विधा होने का प्रमाण है । अतः ऐतिहासिक उपन्यासों में जीवनोन्मुख कल्पना का प्रयोग होता है । साथ ही साथ ऐतिहासिक उपन्यास में कल्पना समावेश का पर्याप्त गुंजाइश होने पर भी यह विवेच्य युग के देश-काल से अनुशासित होती हैं । क्योंकि श्रेष्ठ कलात्मक सर्जना स्रष्टा से कल्पनात्क तटस्थता की माॅंग करती है ।
ऐतिहासिक उपन्यासों के प्रकार
इतिहास एवं कल्पना के प्रयोग के आधार पर मुख्यतः ऐतिहासिक उपन्यासों के तीन प्रकार हो सकते हैं-
1. इतिहास-प्रधान उपन्यास
2. इतिहास एवं कल्पना प्रधान उपन्यास और
3. कल्पना प्रधान उपन्यास ।
1.इतिहास प्रधान उपन्यास
इतिहास प्रधान उपन्यासों में इतिहास की प्रधानता होती है और इसमें कल्पना गौण रहती है । इनमें ऐतिहासिक तथ्यों के विशेष संग्रह का प्रयत्न और ऐतिहासिक घटनाओं, पात्रों और परिस्थितियों का पूर्ण उपयोग होता है । हिन्दी में ऐसा उपन्यास कम मिलते हैं । वृन्दावनलाल वर्मा का ’झाॅंसी की रानी’, जयशंकर प्रसाद का ’इरावती’, प्रताप नारायण श्रीवास्तव का ’बेकसी का मज़ार’, रांगेय राघव का ’चीवर’ आदि ऐतिहासिक उपन्यास इस कोटि में आता है । जब इतिहास का अधिक आश्रय लिया जाता है तब उसमें परिवर्तन की संभावनाएॅं कम होती हैं । लेकिन यह संभव है कि इतिहास के पुनःर्विश्लेषण के माध्यम से इतिहास की गति में आए परिवर्तनों और उस समय के सामाजिक कार्यकलापों को प्रस्तुत करके इतिहास के अंदर एक ओर इतिहास रचा जा सकता है । प्रायः इतिहास प्रधान उपन्यासों में यही होता है । यहाॅं ऐतिहासिक उपन्यासकार केलिए इतिहास-ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि का समान महत्व है । कल्पना के कम प्रयोग के कारण इसमें इतिहास को पुनःर्रचित करने की प्रवृत्ति बलवत्ती रहती है ।
2.इतिहास एवं कल्पना प्रधान उपन्यास
इतिहास एवं कल्पना प्रधान उपन्यासों में इतिहास और कल्पना को समतुल्य स्थान मिलता है । ऐसे उपन्यासों में कुछ घटनाएॅं, पात्र एवं स्थितियाॅं ऐतिहासिक होते हैं और कुछ काल्पनिक । इसप्रकार के उपन्यासों की सफलता इतिहास एवं कल्पना के आपसी समन्वय, द्वन्द और उनके अनुपात पर आश्रित है । जिस उपन्यास में इतिहास और कल्पना तत्व परस्पर पूरक एवं समन्वित हो वह उतना ही प्रभावशाली बन जाता है । इसप्रकार के उपन्यास ऐतिहासिक उपन्यासों की श्रेणी में सबसे महत्वपूर्ण और सफल समझे जाते हैं । वृन्दावनलाल वर्मा का ’ मृगनयनी’, चतुरसेन शास्त्री का ’ वैशाली की नगरवधू’, रांगेय राघव का ’राह न रुकी’, यशपाल का ’अमिता’, राहुल सांकृत्यायन का ’सिंहसेनापति’ आदि उपन्यास इस कोटि में आता है । इन उपन्यासों में इतिहास की रचनात्मक स्थिति और कल्पना का आनुपातिक विकास देखने को मिलता है और इनमें दोनों पक्षों में विभेद करना काफी मुश्किल होता है । इसीलिए ऐसी रचनाओं के प्रमुख पात्र या कुछ कथा-प्रसंग इतने मुल्यवान हो जाते हैं कि वे साहित्य के मानक उदाहरण भी हो जाते हैं । ऐसे पात्र निरंतर चर्चा में आते हैं जिनमें ऐतिहासिक और काल्पनिक का कोई भेद नहीं है । साथ ही साथ कथा प्रकरण भी इसप्रकार चर्चित बन सकते हैं ।
3.कल्पना प्रधान उपन्यास
कल्पना प्रधान उपन्यासों में काल्पनिक पात्रों और घटनाओं के माध्यम से ऐतिहासिक वातावरण का सृजन करके कथानक का विकास किया जाता है । इस तरह के उपन्यास में उपन्यासकार की कल्पनाशीलता को यथेष्ट विचरण करने की छूट है । जब ऐतिहासिक घटनाओं और सत्यों के सूत्र का पता नहीं चलता, समय की मर्यादाओं ने उन्हें ओझल कर दिया हो, ऐसी स्थिति में उपन्यासकार अपनी कल्पना का अधिकाधिक प्रयोग करता है । इसप्रकार उपन्यासकार भूले हुए या खोए हुए इतिहास का पुनःसृजन करता है । चतुरसेन शास्त्री का ’वयं रक्षामः’, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का ’बाणभट्ट की आत्मकथा’, रांगेय राघव का ’मुर्दों का टीला’, ’अंधेरे के जुगनू’, ’पक्षी और आकाश’ आदि इसके उदाहरण है । इन उपन्यासों की रचना के कुछ उद्देश्य भी होते हैं । उद्देश्यपूर्ति की विशिष्टता ऐसे कल्पनाप्रधान ऐतिहासिक उपन्यासों के पीछे कार्यरत रहती हैं । इन्हीं विशिष्ट सामाजिक परिकल्पनाओं या राजनीतिक वातावरणों या ऐसे अनेक इच्छित आदर्शों के अपने महत्व भी हैं । यशपाल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ’दिव्या’ , राहुल सांकृत्यायन का ’जय यौधेय’ आदि इसके अंतर्गत आते हैं । ये दोनों उपन्यास माक्र्सवादी दर्शन से प्रभावित भी है ।
ऐतिहासिक उपन्यासों में चाहे इतिहास के परिदृश्य अधिक मुखर हो या कल्पना का या दोनों के समन्वय का, उनका प्रत्यक्षीकरण कई संदर्भों में होता रहता है । अर्थात् ऐतिहासिक उपन्यासकार अपनी औपन्यासिक वस्तुओं में, वस्तु के विभिन्न प्रकरणों में इतिहास का या कल्पना का उपयोग निम्नानुसार करता है:
1.तथ्य चयन का परिदृश्य
ऐतिहासिक तथ्यों के अंतर्गत शिलालेख, ताम्रपत्र, मुद्रा, प्राचीन पत्र, प्रामाणिक ग्रंथ आदि आता है । इनके सहारे धारावाहिक इतिहास बनाने में इतिहासकार को कल्पना का भी आश्रय लेना पडता है । यह कल्पना उपन्यासकार की कल्पना से भिन्न है । इतिहासकार की कल्पना, प्रप्त सामग्रियों और दस्तावेज़ों के अनुकूल सूत्रहीन इतिहास को श्रृंखलाबद्ध करने केलिए होती है । लेकिन उपन्यासकार अनुमानों की अपेक्षा कल्पना पर आधारित संभाव्य सत्य पर अधिक ज़ोर देता है ।
श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास सदा कल्पना के अधीन होता है, कल्पना इतिहास के नहीं । अतः उपन्यासकार को ऐतिहासिक तथ्यों के बलात् समावेश से बचना है । ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता अपरिहार्य नहीं है, इसमें कल्पना एवं सर्जनात्मक प्रतिभा ही अधिक वांछित है । इस दृष्टि से ऐतिहासिक उपन्यास की सीमाएॅं अधिक व्यापक है । इतिहासकार उपलब्ध तथ्यों की उपेक्षा या उसे बदलने का साहस नहीं कर सकता है । उसमें बुद्धि और विचार की प्रेयता है, भावना और कल्पना की नहीं ।
तथ्यान्वेषण में उपन्यासकार कवि-हृदय को लिए रहता है तो इतिहासकार वैज्ञानिक दृष्टि को स्वीकारता है । यानी उपन्यासकार ऐतिहासिक तथ्यों के मानवीय पक्षों के आग्रही होते हैं । एक विशेष तथ्य को वह अपनी प्रतिभा के अनुकूल विकसित कर सकता है जिसमें वह इतिहास को झुठलाने का प्रयास नहीं करता है बल्कि इतिहास को कथा परिप्रेक्ष्य में ला खडा करता है । साथ ही साथ वह इतिहासेतर तथ्यों की परिकल्पना से रचनात्मक सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाता है । ऐतिहासिक तथ्यों की चयन प्रक्रिया में वह इतिहासकार की अपेक्षा अधिक सचेतन है । यहाॅं उनकी प्रतिभा अधिक मुखरित होती है । ऐतिहासिक उपन्यासों में वह इतिहास के कालबद्ध तथ्यों को चिरकालीन सत्यों के रूप में परिवर्तित करता है । इसी कारण से उपन्यास की महत्व और प्रासंगिकता बनी रहती है ।
2. ऐतिहासिक व्यक्ति बनाम पात्र
इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों का जीवन सबको प्रभावित करता है और ऐतिहासिक उपन्यासों में इन व्यक्तियों की परिकल्पना होती है । क्योंकि इन व्यक्तियों ने इतिहास में राजनीतिक, सामाजिक, सांॅस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों के विपरीत अपने युग का निर्माण किया होगा । ऐसे इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति पात्र बनकर उपन्यास को सजीवता प्रदान कर सकता है । यहांॅ एक ओर उनका इतिहास सम्मत स्वरूप है तो दूसरी ओर उपन्यासकार द्वारा परिकल्पित काल्पनिक स्वरूप और दोनों का द्वन्द ऐतिहासिक उपन्यासों में दिखाया जाता है । साथ ही साथ उपन्यासकार का यह दायित्व होता है कि वह अपने ऐतिहासिक पात्रों को ऐतिहासिक प्रतीक बनने से बचा लें, यानी ऐतिहासिक व्यक्तियों के गुणों की रक्षा करते हुए, अपनी सृजनात्मक कल्पना से उन्हें उपन्यास का पात्र बनाएॅं। ऐतिहासिक उपन्यासकार का अपना जीवन दर्शन होता है, वह अपने उद्देश्य की पूर्ति केलिए अनुकूल ऐतिहासिक व्यक्तियों, उनसे संबंधित घटनाओं और स्थितियों का चयन करता है । इसकी सफलता केलिए उपन्यास में वह काल्पनिक पात्रों और घटनाओं का भी समावेश करता है जिन्हें वह ऐतिहासिक व्यक्तियों व घटनाओं के साथ जोडता है । उपन्यासकार जाने-माने ऐतिहासिक व्यक्तियों के साथ सामान्य जन-जीवन को भी जोडता है ।
ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं में वह अपनी दृष्टि और विचारधारा का आरोप करता है । इसलिए एक ही ऐतिहासिक व्यक्ति भिन्न भिन्न उपन्यासों में भिन्न भिन्न भूमिकाओं में प्रस्तुत हो सकता है । इतिहास प्रसिद्ध पात्रों के साथ काल्पनिक पात्र इतनी बारीकी से जुड जाते हैं कि उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है । यह पारस्परिकता उपन्यास की कलात्मकता की सूझ-बूझ से संबंधित है । वास्तविक इतिहास में कोई पात्र नहीं होता है, वह व्यक्ति है-जीवित या अनुमानित । परन्तु उपन्यास में वह पात्र की भूमिका में उतरता है । तब उसके जीवन का एक अलग परिदृश्य प्राप्त होता है । उसके साथ काल्पनिक पात्र कभी कमज़ोर नहीं नज़र आ सकते, दोनों एक साथ चलते या अलग होते अपने अस्तित्व के साथ उभर आते हैं ।
3. आचार-विचार एवं सामाजिक प्रथाएंॅ
ऐतिहासिक उपन्यास में मुख्यतः उस काल की विचारधारा, जीवन-पद्धति आदि का समायोजन होता है, जिसके माध्यम से हम युगीन यथार्थ और अतीतकालीन इतिहास-सत्य का साक्षात्कार कर सकें । ऐतिहासिक उपन्यासों में तत्कालीन समाज-व्यवस्था, रीति-रिवाज़, उत्सव-त्यौहार, वेश-भूषा, धर्म-संस्कृति और जन-जीवन में व्याप्त अन्य लोक-तत्वों का अत्यंत सजीवता के साथ अंकन किया जाता है । ऐतिहासिक उपन्यासकार सजग रहकर ही इन विशिष्टताओं को रेखांकित कर सकता है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार ’ ऐतिहासिक उपन्यासकार को तभी ऐतिहासिक उपन्यासों में हाथ लगाना चाहिए कि जब तक उसे भिन्न भिन्न कालों की सामाजिक स्थिति और संस्कृति का अलग अलग विशेष रूप से अध्ययन और उस सामाजिक स्थिति के सूक्ष्म ब्यौरांे की अपनी ऐतिहासिक कल्पना द्वारा उद्भावना संभव है । यहोॅं सफल ऐतिहासिक तत्व प्राप्त होगा, साथ ही कल्पना का प्रयोग होते हुए भी इतिहास दिखलाई देगा’ ;हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.251द्ध । ऐतिहासिक उपन्यासकार को सदैव सचेत रहना चाहिए कि कोई भी घटना, रीति-रिवाज़ या प्रथाएॅं ऐसी न हो जिनके आधार पर पाठक कृति पर कालदोष का आरोप लगा दें ।
4. ऐतिहासिकता की वांॅछित दिशाएंॅ
ऐतिहासिक उपन्यास की ऐतिहासिकता मात्र बाहरी उपादान नहीं है, वह आंतरिक भी है । अर्थात् ऐतिहासिकता उसकी समग्रता है । उपन्यास को ऐतिहासिक बनानेवाले वस्तु यही समग्रता है । ऐतिहासिक उपन्यासकार अपनी भाषा-शैली से अतीत के रंग-रूप को उतारने में समर्थ होता है । वह अप्रचलित, असाधारण शब्दावली से ऐतिहासिक वातावरण का सृजन करता है । पात्रों के प्राचीन नाम, उनके शिष्टाचार आदि के प्राचीन संबोधन, वस्तुओं, जातियों, नगरों तथा देशों के प्रचीन नाम आदि से विगत युग के वातावरण को साकार किया जाता है । आंॅचलिक यथार्थता से वातावरण को और वास्तविक बनाने केलिए क्षेत्रीय भाषा का भी प्रयोग होता है । पाठकों की सहानुभूति अर्जित करके उनकी संवेदनाओं को उभारना और भावनाओं को परिष्कार करना ही उपन्यासकार का चरम लक्ष्य है ।
संक्षेप में, ऐतिहासिक उपन्यासकार अतीत की वर्तमानता को अधिक सतर्क और सार्थकता से इंगित कर अतीत और वर्तमानता को अन्तःसूत्रित करने का प्रयास करता है । इसमें उपन्यासकार इतिहास एवं कल्पना को अपनी प्रतिभा के रचनात्मक उपयोग से जीवन्त और प्रामाणिक बनाकर प्रस्तुत करता है । अतः उनकी ऐतिहासिक कल्पना आलोचनात्मक विवेक से कभी वंचित नहीं है ।
’’’’’’’’’’’’’’’’’’
वरिष्ठ हिन्दी अनुवदक,
एअर इंडिया लिमिटेड,
कोषि़क्कोड एयरपोर्ट ।
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY