Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

नई नैतिकता और धन का आदर्श

 

नैतिकता का क्षेत्र इतना व्यापक और विस्तृत होता है कि संपूर्ण मानव जाति और उसके आचार-विचार, सभ्यता-संस्कृति, व्यवहार, सुरक्षा का आग्रह आदि इसमें समा जाता है । सभ्यता के उत्थान-पतन एवं देश-काल के साथ नैतिकता के प्रतिमान भी बदलते रहते हैं । हमारेे सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के संदंर्भ में महात्मा गाॅंधी ने सत्य और अहिंसा का आदर्श प्रस्तुत किया था, परन्तु आज की ज़माने में इन मूल्यों का अर्थ ही बदल गया है । आज की नई नैतिकता और धन का आदर्श है कि जिसके पास धन-दौलत है और जिसका हाथ मज़बूत है, उसकी ही जीत होती है । यहाॅं प्रत्येक व्यक्ति को इस दुनिया में जीने केलिए या अपनी अस्मिता को बनाए रखने केलिए नैतिकता के द्वन्द से जूझना पडता है । अतः समसामयिक युग-संघर्ष तथा नई नैतिकता की अभिव्यक्ति अधुनातन उपन्यास लेखन की अनिवार्यता समझी जाती हैं ।

 

 रांगेय राघव के उपन्यास ’पराया’ में आधुनिक जीवन की विषमताओं और विसंगतियों से उत्पन्न विघटनों को अत्यंत संवेद्य रूप में प्रस्तुत किया है । उपन्यास में नैतिक भ्रष्टाचार तथा सामाजिक स्खलन के संकेत स्थानीय होते हुए भी समूचे देश की स्थिति से हमें अवगत कराने में उपन्यासकार सफल हुए हैं । उपन्यास में वर्तमान सामाजिक-व्यवस्था, घुटन-पीडन, अत्याचार, नारी-समस्या, स्त्री-पुरुष संबंध, आर्थिक-समस्या, यौन-समस्या आदि को नई नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है । भूमंडलीकरण, प्रौद्योगिकी और बाज़ार के साथ विकसित नई नैतिकता लाभ को ही वरीयता देता है, यहाॅं लोग वही करते हैं जिससे लाभ होता है और वही काम नहीं करते हैं जिससे लाभ न होता है । रांगेय राघव ने इस उपन्यास में समाज के उच्च वर्ग में छिपी अर्थलोलुपता एवं सैद्धांतिक शून्यता का झंडाफोड किया है और पॅंूजीवाद के विषैले दाॅंत, आर्थिक भूख, शोषक व्यापारी वर्ग एवं पैसे के कारण छिपकली बने मानव की कटु आलोचना की है ।

 


उपन्यासकार की दृष्टि में इस समाज के सबसे निरीह और खतरनाक आदमी है- बेकार आदमी । बेकार होने की वजह से ही उसके सामने अनेक संभावनाएॅं हैं - वह चाहे तो आत्महत्या कर सकता है, दूसरों की हत्या भी, दूसरों को लूट सकता है, इतना ही नहीं, सभी प्रकार की मानवीयता से वंचित भी हो सकता है । यहाॅं अर्थ हमारी गतिविधियों का संचालन करता है । अर्थ के अभाव में मनुष्य की क्रियाशीलता समाप्त होती है और आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में उत्पन्न मानसिक अशाॅंति से उसका विवेक कुंठित हो जाता है । इन कुंठाओं से ग्रस्त हो जाने पर व्यक्ति यदि अपराधवृत्ति ग्रहण कर लेता है या आत्महत्या केलिए बाध्य हो जाता है । उपन्यास का पात्र मनोहर इस वर्ग का प्रतिनिधि है, वह पैसे केलिए पोकेटमार बनता है और सभी तरह का गंदा काम करता है । जब विषयासक्त बैरिस्टर बिहारीलाल ममता से मिलना चाहता है तब मनोहर उसका भेंट तथा परिचय कराता है । वह बिहारीलाल से इसका फीस माॅंगता है और कहता है-श्डाक्टर मरीज को बीमार जानकर भी उससे पैसे निकलवा लेता है न घ् वकील जब मुवक्किल की जायदाद खतरे में देखता है तब भी उससे दाम ले लेता है या नहीं घ् कहिए बैरिस्टर साहब ! मैं गलत कह रहा हूॅं घ्श् मनोहर कभी कभी ममता से भी पैसा लेता था और अंत में उसी के ही घर में चोरी करता है । जब मालती उसे पहचान लेती है तो वह उससे कहता है-श्तुम भूल रही हो, पाप का धन इसी तरह जाना चाहिए । चलो हम तुम कहिं दूर भाग चलें ।श् मालती उससे सहमत नहीं होती तो वह उसकी हत्या करने की कोशिश करता है । चोरी करने के बाद मनोहर रमेश के पास पहूॅंचता है और उसके घर में छिपना चाहता है । क्योंकि वह भली भाॅंति जानता है कि अमीर के घर में पुलीस नहीं घुस सकता, चोर ही जान से खेल सकता है । इसप्रकार उपन्यास में एक ओर समाज का सुविधाभोगी संभ्रांत वर्ग जैसे आराम से ज़िन्दगी जी रहा है तो दूसरी ओर आम आदमी दो जून रोटी केलिए तटप रहा है । असल में इस वर्ग-वैषम्य के कारण तल्कालीन समाज में उथल-पुथल मची हुई है । व्यवस्था की बेरहमी और विसंगति के प्रति युवमानस में जो विद्रोह और आक्रोश की भावना है उसकी तीव्र अभिव्यक्ति उपन्यास में हुई है ।

 

 


उपन्यासकार की नज़रिए से पूॅंजीवादी वर्ग में नर-नारी का प्रेम व सम्मान बहुत कुछ आर्थिक संपन्नता पर निर्भर होता है । उपन्यास का नायक रमेश सबसे गतिशील और संघर्षश्ील पात्र है । आर्थिक अभाव के कारण वह पहली बार प्रेम के क्षेत्र में कटुता का अनुभव करता है और जब उसकी प्रेमिका ममता उसके घर देखने आती है तब वह वास्तव में चूर-चूर हो जाता है । ममता उसे भिखमॅंगा कहती है और उसके प्यार को ठुकराती है । यहाॅं ममता प्रेम संबंधी वैयक्तिक अनुभूति से बढकर धन को महत्व देती है । वह रमेश से पूछती है -श्तुम्हारे सिर पर कहिं छत है घ् तुम्हारा कहिं ठिकाना भी है घ् याद रखो समुद्र में तैरने केलिए जहाज़ चाहिए ।श् ममता के प्यार को पाने केलिए रमेश उसके कहने के अनुसार धन तथा अधिक से अधिक सुख-सुविधाएॅं जुटाता है । यहाॅं वह इन्सानियत को धक्का देता है और अधिक कठोरता को अपनाता है । वह मालती को ठगकर उसके सारे धन छीन लेता है और गरीबों के पेट पर लात मारकर अमीर बन जाता है । रमेश की आचरण पर व्यंग्य करते हुए मनोहर पूछता है-श्आज की दुनिया में बिना बेईमानी किए कोई इतना धन कमा सकता है घ् तुम व्यापार करके समझते हो कि तुम ईमान की ज़िन्दगी बिता रहे हो घ् लेकिन क्या तुम्हारा व्यापार चोरबाज़ारी और सट्टे पर नहीं पलता घ् अगर तुम किसी का पेट नहीं काटते तो तुम्हारे पास इतनी दौलत कहाॅं से आती है घ्श् यहाॅं उपन्यासकार ने समकालीन समाज की नैतिकता एवं धन के आदर्श पर कटु आलोचना की है । उनके अनुसार श्पूॅंजीवादी समाज में मनुष्य का उत्थान वास्तव में उसका चारित्रिक पतन है । वह जितना ही धन के कारण सम्मान पाता है उतनी ही उसकी आत्मा मरती जाती है । लालच की मिट्टी डालकर वह अपनी आत्मा की लाश को ढॅंकता जाता है ताकि वह भीतर ही सडती रहे, बाहर बदबू न दें।श् यहाॅं उपन्यासकार की पैनी दृष्टि और जीवन दर्शन का परिचय मिलता है । उपन्यास में एक ओर धन के ज़ोर से कैसे अच्छा-बुरा काम संभव है, इसका चित्रण है तो दूसरी ओर उन सामाजिक विडंबनाओं और मूलगत अंतर्विरोधों का संकेत भी है ।

 

 


गुलामी और आज़ादी में सिर्फ इतना अंतर आया है कि विदेशी बुजुर्बा की जगह स्वदेशी बुजुर्बा सत्ता में आए । यानी 1947 में सत्ता हस्तान्तरण ही हुआ । फिर भारतीय पूॅजीवाद की तमाम क्षेत्रों में प्रगति हो गई, परिणामस्वरूप जीवन के हर मोड पर नृशंसता और पाखंडता घर कर चुकी है । एक ओर जनता असहाय स्थिति में जी रही हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था शोषण का शिकंजा बराबर कसती जा रही है । वर्गों में बंट गए हमारे समाज के एकदम निचले तबके यानी आदमी होते हुए भी कुत्ते से भी बदत्तर जीवन जीनेवाले आदमियों की अभावग्रस्त जीवन के यथार्थ चित्रण उपन्यास में है ।

 

 


युगद्रष्टा महात्मा गाॅंधी ने अर्ध-नग्न होकर देशी संस्कृति और खादी का प्रचार किया था, इसमें उनकी दूरदशर््िता और भारतीयता का एहसास श्लाघनीय है । परन्तु हमारी संस्कृति में पाश्चात्य जीवन-शैली के हस्तक्षेप से हर क्षेत्र में मूल्य-विघटन दर्शनीय है । अब नई नैतिकता रैम्प पर कपडे बदल रही हैं । उपन्यास की नायिका ममता उच्च-मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षित अनुपम सुन्दरी है । उसने आधुनिक विचारों और पाश्चात्य जीवन-शैली को अपनाई है । उपन्यास में ममता के रूप वर्णन से आधुनिक जीवन-शैली का परिचय मिलती है, जो गाॅंधीजी की ’अर्ध-नग्नता’ और जीवन-दर्शन से कुछ अलग दीखती है-श्उसका सौन्दर्य उस समय अपनी अभिव्यक्ति करने में ऐसा सन्नद्ध था जैसे कोई पटेबाज अखाडे में आ खडा हुआ था । उसने ऐसा ब्लाउज़ पहना था जिसमें उसके वक्ष का उुपरी भाग, कन्धे और पीठ तथा हाथ दिखाई दे रहे थे ।

 

 साडी का पल्ला उसने ऐसे ओठा था कि उसका यौवन दिखाई देता रहे । उसके गोरे शरीर पर चमकते काले ब्लाउज़ पर पीली रेश्मी साडी का पतला पल्ला ऐसे कन्धे पर होकर पीछे गिर जाता था जैसे चाॅंदनी में सिमटे हुए अंधकार पर बहती हल्की नदी की धारा पर्वत के दोनों ओर गिर रही थी । ममता के सौन्दर्य-विकास में अमरीकी कला ने पदन्यास किया था कि अंग अंग का सौष्ठव अलग अलग दिखाई देता रहा । उसके बाल रेशम के लच्छों से उसके कंधों पर फहरा रहे थे और उसके नेत्रों की कोरों पर खिली काजल की रेखाएॅं उसकी नेत्रों की अनी बनकर निकली हुई थी।श् रमेश से उसका प्यार तब तक रहता है जब तक कि वह उसकी निर्धनता से परिचित नहीं हो जाती । उसमें स्त्री-सुलभ लज्जा के स्थान पर पुरुषोचित धृष्टता की मात्रा अधिक है । वह स्वयं आगे बढकर बैरिस्टर बिहारीलाल को अपनी ओर आकर्षित करती है और नैतिक मर्यादाओं की अवहेलना करते हुए उसके साथ अनैतिक संबंध स्थापित करती है । वह पुरुषों के समान सिगरेट और शराब पीती है और अपने मन-मर्ज़ी के आगे उसकेलिए समाज के विधि-निषेधों का कोई मूल्य नहीं है । वह मुक्त भोग को नियती के आदर्श के रूप में अपनाती है । ममता भौतिक आकर्षणों केलिए प्रेम के नाम पर नारीत्व को बेच देती है और दौलत के फूलों पर मंडरानेवाली तितली बन जाती है । वह बैरिस्टर बिहारीलाल के साथ घूमती है, क्लब में जाती है, नाचती है और कहती है कि श्मुझे क्लबों में जन्नत दिखाई देती है ।

 

 


समकालीन समाज का यह विलासी एवं खोखला जीवन विलायत की झूठी नकल है । आज हमारे महानगरों में ही नहीं अपितु छोटे छोटे शहरों में भी इस जीवन-शैली का विकास होने लगी है । यहाॅं सभ्यता का मतलब सौन्दर्य प्रदर्शन ही रहा है और कोई किसी का हमदर्द नहीं होता है-श्वे सभ्य लोग अपनी-अपनी सभ्य साथिन में तल्लीन हो गए । वे सुन्दरियाॅं जवानी की रास्ते को मस्ती के पुल पर खडी होकर पार कर जाने के हौसले में थीं और वह होड दिन-भर-दिन बढती ही जा रही थी । क्लब का वातावरण ऐसा ही था, धनी लोग आकर नितांत कृत्रिमता से एक दूसरे से मिलते, क्योंकि उनके जीवन का आधार, किसी मानवीय भावना का सौहार्द नहीं था, वह चमकते सिक्कों या नोटों की गड्डियों पर निर्भर होता । फानूसों में जलते बल्बों का रंगीन प्रकाश धरती की चम-चमाती आॅंख पर गिरता और जूतों से उसे कुचलते हुए वह मदाॅंत प्राणी अपनी झूठी किलकारियों में डूबा देते ।

 


बैरिस्टर बिहारीलाल को लेखक ने खलनायक के रूप में चित्रित किया है । उसका प्रेम अत्यधिक वासनापरक है और प्रेम के संबंध में वह अनुशासनों को अस्वीकार करता है । भोग को ही वह प्रेम का एकमात्र उद्देश्य समझता है और नित्य नई-नई नारियों से संपर्क की कामना करता है । ममता के रूप की अंतिम बूॅंद तक पीने के बाद वह उसे छोड देता है । उसके द्वारा ममता गर्भवति हो जाने पर वह कहता है -श्तुम्हारी किस्मत ! मैं तो चला । तुम भी कहीं अस्पताल में चली जाओ । बच्चे को वहीं छोड देना । आजकल बहुत सी शरीफ औरतें यही करती हैं ।श् उपन्यासकार ने ममता के माध्यम से धन के पीछे दौडनेवाली आधुनिक युवतियों के अंतिम परिणामों की ओर संकेत किया है । समकालीन समाज में पश्चिमी सभ्यता के कुप्रभाव से चारित्रिक पतन परिलक्षित हो रहा है, नितांत उच्छृंखलता एवं भेगवादी आचरण बढ रहा है । उपन्यास की नायिका ममता उस वर्ग की प्रतिनिधि है ।

 


उपन्यासकार ने प्रोफेसर होल्कर और अरुणा की प्रासंगिक कथा के द्वारा उच्च-मध्य वर्गीय समाज के खोखले जीवन पर प्रकाश डाला है । अरुणा प्रोफेसर होल्कर की विद्वता से प्रभावित होकर उनसे शादी करती है और बाद में आर्थिक अभाव के कारण उनके जीवन को विषाक्त बना देती है । वह प्रोफेसर को विवश कराती है कि धन ही सब कुछ है, जैसा भी हो कमाना चाहिए । अंत में प्रोफेसर होल्कर अपने आदर्शों की बलि देता है और दस हज़ार रुपए केलिए स्वरचित साहित्य को धनी रमेश के नाम पर प्रकाशित कराने केलिए तैयार हो जाता है । यहाॅ उपन्यासकार ने मौजूदा व्यवस्था को उजागर किया है, जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं, उसमें ज्ञान, प्रतिभा आदि खोखली चीज़ें हैं । अर्थ ही सब कुछ हैं । उपन्यासकार ने प्रोफेसर होल्कर के द्वारा मूल्य-विघटन की इस दर्दनाक स्थिति की ओर इशारा किया है, जहाॅं रचनाकार अपने आदर्श को कलंकित कर रहे हैं और धनी लोग दूसरों के बल पर अपने को महान साहित्यकार साबित कर रहे हैं ।

 

 


उपन्यासकार नेे मालती के द्वारा वेश्याओं के जीवन की विडंबनाओं, उनकी परिस्थिति की विवशताओं तथा उनके मन की निर्मल आकाॅंक्षाओं पर प्रकाश डाला है । वेश्या में पतीत्व की भूख कितनी प्रबल होती है, उपन्यास में इसका दिग्दर्शन है । रमेश के प्रेम को मालती ने अपने जीवन की पाथेय बना दिया है । वह रमेश से कहती है-श्औरत पैसा नहीं दिल चाहती है । जब उसे प्यार मिलता है तब वह दुनिया कि बडी से बडी मुसीबत भी झेल सकती है । तुमने वेश्या देखी है....पर वेश्या का हृदय नहीं देखा, जब वह प्यार करती है तो दुनिया की कोई शक्ति उसे झुका नहीं सकती ।श् वेश्यावृत्ति वैयक्तिक विघटन का परम निकृष्ट एवं अत्यंत पतित रूप है और मानव समाज केलिए अभिशाप है । लेखक वेश्यावृत्ति का उन्मूलन चाहते हैं, इसीलिए ही उन्होंने उपन्यास में मालती का सृजन और उद्वार किया है । नारी पुरुष का खिलौना मात्र नहीं है, समाज रूपी रथ के परिवहन में वह भी एक पहिया है जो कि पुरुष रूपी अन्य पहिये की सहायता से रथ को आगे बढाती है । उपन्यासकार ने शोभा का चित्रण इसी उद्देश्य से किया है जो अपनी चारित्रिक विशेषताओं से भारतीय नारी-चेतना का परिचय देती है ।

 

 


सामाजिक समस्याओं का समाधान कानून बनाने से नहीं होता, अपितु व्यक्तियों के परिवर्तन एवं नैतिक उन्नति से ही संभव है । आधुतिक युग में मानवीय संबंधों में जटिलता आई है । आज की नई नैतिकता, धन का आदर्श एवं मूल्य-विघटन ने सख्त संबंधों को भी ढीला कर दिया है । इस बदलाव के प्रति रांगेय राघव ने जो रवैया अख्तियार किया है, वह यथार्थ के धरातल पर आधारित है । उन्होंने नए मूल्यों को तरज़ीह दी, साथ में मानवीय मूल्यों के विघटन से उत्पन्न विकराल परिवेश को उकेरने का महान कार्य भी किया है ।

 

 

 

डा० टी० पी० शाजू

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ