तेरी छाॅंह के नीचे बैठा
मैंने सार्थकता महसूस की थी,
फिर तेरी खुशी, मेरी खुशी
छिप गई कहाॅं...़
छीन ले गया कौन...
पतझड आया ;
मेरे जीवन में तुम्हें-
वसंत की प्रतीक्षा थी !
नियती ! तूने खेला पहला खेल !
तेरी मर्ज़ी है मनमर्जी....
तूने दिया था मुझे,
तरल लहर-सा
वह पहला फूल !
मैंने इसे प्यार से संभाला,
फिर तुने ही....
कुचल दिया उसे !
मेरे सपने छीन लिए तुम,
क्यों न हो निष्ठूर !
नियती ! तूने खेला पहला खेल !
काॅंटे तू ने ही बिछाए थे,
कसक है क्या चुभने से...
अब शैतल्य ही भाता मुझे,
क्या तुम शीतल हो...
मेरा तप्त जीवन,
तेरी शीतल छाया में विलीन;
सो जाउूॅं मैं चिर-निद्रा !
नियती ! तूने खेला पहला खेल !
डा० टी० पी० शाजू
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