-डाॅ. टी.पी.शाजू
रांगेय राघव हिन्दी साहित्य में अज्ञेय, जैनेन्द्र, मोहन राकेश की परंपरा में न आकर राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, भगवतशरण उपाध्याय, अमृतलाल नागर की परंपरा में आनेवाले हैं । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रगतिशील लेखक हैं । राहुल सांकृत्यायन के समान वे पुरातत्ववेत्ता और व्याख्याकार भी रहे । सर्जक साहित्यकार के अलावा वे उच्चकोटि के शोधकर्ता और इतिहासकार भी है । उनकी मेधा-शक्ति का मुखर रूप इतिहास अध्ययन में ही उपलब्ध होता है ।
रांगेय राघव ने भारतीय इतिहास की बारीकियों को लेकर वस्तुपरक चिंतन किया है । ’प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ नामक इतिहास गंथ उनकी मौलिक एवं उल्लेखनीय उपलब्धि है, जिसकेलिए उन्हें सन् 1954 का ’हरजीमल डालमिया’ पुरस्कार मिला था । इसमें उन्होंने ऐतिहासिक यथार्थवादी दृष्टि से प्रागैतिहासिक भारत का भौगोलिक विवेचन तथा विभिन्न जातियों के सामाजिक-साॅंस्कृतिक विकास को रेखांकित किया है । खुदाई में प्राप्त वस्तुएॅं मनुष्य की अनेक जातियों, उनके रहन-सहन के तौर तरीकों, उनके रीति-रिवाज़ों और निवास-स्थानों पर प्रकाश डालती है । साथ ही साथ ये जातियाॅं सभ्यता की किस सीमा पर थीं, उनका संसार कौन-कौन सी जातियों से संबंध था आदि की सूचनाएॅं भी प्राप्त होती हैं । इसप्रकार नई-नई जातियाॅं जब एक दूसरे से मिलीं तो उनका परस्पर संपर्क हुआ । समाज किसप्रकार बढा, राजन्य वर्ग कैसे उत्पन्न हुए आदि इस ग्रंथ के विषय हैं । अतीत के तमाम उधार चढावों, उत्पादन और वर्ग विभाजन के मामलों का अध्ययन इसमें प्रस्तुत किया गया है । आलोच्य ग्रंथ में इतिहास की व्याख्या अपनी संपूर्ण जटिलताओं के साथ साकार हो उठी है । इतिहासकार की पैनी दृष्टि और व्याख्याकार की विश्लेषण क्षमता रांगेय राघव में होने के कारण प्रस्तुत ग्रंथ एक ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज़ के समान हैं जिसमें उल्लिखित अतीत की संभावनाएॅं त्याज्य नहीं है।
रांगेय राघव की दृष्टि में इतिहास के अध्ययन से ही हम मनुष्य के विकास को रेखांकित कर सकते हैं । उसकी अनथक यात्रा को समझने केलिए हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त और तटस्थ होना चाहिए । इतिहास के विचित्रताओं के प्रति खुले दिमाग से जागरूग रहना है । उनके अनुसार मध्यकालीन मुस्लीम इतिहासकारों ने जनता के विषय में कुछ नहीं लिखा है । इन लोगों ने केवल राजवंशों के विषय में लिखा है । उनका ध्येय अपने अन्नदाताओं की प्रशसा रहा है । उनकी स्तुति में बहुत कुछ बढा-चढाकर लिखा गया है । अपने बादशाहों के पराजय को भी विजय में बदल दिया गया है । इसके अतिरिक्त हमारे मध्यकालीन इतिहासकार सर्वत्र जिसे शाॅंति कहते हैं, वह दमन है । अतः हमें उनके अंतर्साक्ष्य भी नहीं मिलते हैं । इसी भाॅंति रीतिकालीन कवियों ने भी कोई साक्ष्य नहीं छोडा है । परन्तु संतों और भक्त कवियों के जीवन-चरित्र तथा कथाओं और साहित्य में जनजीवन का आभास अवश्य मिलता है ।
रांगेय राघव मानते हैं कि भारतीय जीवन, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति अपने मूल्यों में यूरोप से भिन्न है । अतः भारतीय जीवन को समझने केलिए भारतीय दृष्टि ही अपेक्षित है । भारत में प्रागैतिहासिक काल में जंगली जातियाॅं थीं, इनमें निषाद, कोल, भील, संथाल,मुडा आदि जातियाॅं आती हैं । इनके बाद द्रविड आए । द्रविडों में जातीयता का विकास नहीं हुआ था । जैसे मुसलमानों की कई जातियों ने भारत पर आक्रमण किया, बाद में वह ’मुसलमान’ एक ही कोटि में मान ली गई । प्रारंभिक जीवन में द्रविडों का आपसी संघर्ष इस तथ्य को पुष्ट करता है । रांगेय राघव की दृष्टि में ’भारत का प्राचीन इतिहास अत्यंत जटिल है, उसे किसी वाद-विशेष के आधार पर सिद्ध नहीं करना चाहिए । पहले तथ्यों को एकत्रित करके फिर उसपर दृष्टिपात करना चाहिए । वही नए-नए तथ्यों पर प्रकाश डाल सकता है, वही आगे बढ सकता है ।’ ;रांगेय राघव-’प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’- भूमिकाद्ध । इसके अतिरिक्त इतिहास के अंतर्गत जातियों के क्रिया-कलापों के विवेचन में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह और पक्षपात दिखाना अन्याय है । आर्य अच्छे थे या द्रविड अच्छे थे ऐसा सोचना अवैज्ञानिक है । क्योंकि उस समय की जातियाॅं इस मानदंड पर नहीं देखी जा सकती । इतिहास मे तो आर्य या द्रविड जाति के व्यवस्था-विशेष को देखना उचित है । अनार्य दास-प्रथा के समाज की विषमता या उनके राजा की निरंकुशता को तोडनेवाले आर्यों को अनार्य समाज में पूज्य माना गया है । दूसरी ओर पुराने इतिहास में दूसरों की स्वतंत्रता छीननेवाले रावण और जरासंध को बुरा कहा गया है । क्योंकि वे दूसरों को दबाते थे । इतिहास की गहराइयों में न जाने से भूलें होना स्वाभाविक है । दक्षिण का आर्यविरोधी आन्दोलन इसका उदाहरण है । रांगेय राघव की दृष्टि में दक्षिण का सारा ब्राह्मण वर्ण जो आर्य कहला रहा है, वह आर्य नहीं है । दक्षिण के ब्राह्मण वर्ण, आर्य और द्रविड पुरोहितों के मिल जाने से बना है । अंतर्भुक्ति की विराटता में रक्त-शु़िद्ध विनष्ट हुई है । इसीलिए द्रविड कज़कम का आन्दोलन ठोस बुनियादों पर नहीं है । यह बिलकुल एक राजनीतिक अवसरवाद है । किन्तु उत्तर, पूर्व और पश्चिम के अतिरिक्त दक्षिण का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है । जब हम दक्षिण के संबंध में आते हैं, तो अनेक प्रागैतिहासिक तथ्यों, जातियों और उनके धर्म तथा वर्ग जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।
रागेय राघव मानते हैं कि भारतीय इतिहास के विकास की कुछ निजी मंजिलें हैं । क्षेत्र संबंधी विशेषताएॅं इनमें मुख्य हैं और भारत में एक ही समय विकास के विभिन्न सोपान देखा जा सकता है । जैसे कि पूॅंजीवाद आने पर भारत में उसका सम विकास नहीें हुआ । माक्र्स ने भी ’एशियाटिक’ इतिहास को यूरोपीय इतिहास से कुछ भिन्न माना है । संसार के अन्य देशों में जंगली, बर्बर दास-प्रथा समाज के समाज-सभ्यता अवस्था तथा प्रजा सामंत-अवस्था को जल्दी जल्दी पार किया । वहाॅं पूॅंजीवादी समाज और आगे कहीं-कहीं समाजवाद की भी स्थापना हो गई । किन्तु भारत में एक एक युग बहुत धीरे-धीरे बदले, दूसरी ओर जातियों की जटिल समस्या से उत्पन्न जाति-समस्या और वर्ण-व्यवस्था । साथ ही साथ ’भारतीय समाज में निरंतर वर्ग-संघर्ष होता रहा है । किन्तु उसका स्पष्ट स्वरूप वर्ण-संघर्ष के रूप में भारत में प्रकट हुआ है ;रांगेय राघव-’प्रतिदान’- भूमिकाद्ध । रांगेय राघव ने इसे और भी स्पष्ट किया है कि ’जब जब भारत में वर्ग-संघर्ष अपने प्रकट या प्रच्छन्न रूप में तीव्र हुआ, उच्च वर्णों ने जातीय समस्या खडी की और जनता को भरमाया । इसका अंतिम उदाहरण है हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन’;प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास- भूमिकाद्ध । यहाॅं रांगेय राघव इस निष्कर्ष पर पहूॅंचते हंै कि भरतीय इतिहास की वास्तविकता न हिन्दु काल और मुस्लीम काल के गौरव गाने में है न समाज की वास्तविकता को छिपाने में । हमें जनता का सुख-दुःख सामने रखकर देखना चाहिए ।
रांगेय राघव की इतिहास-दृष्टि पर कई इतिहासकारों और आलोचकों ने कडी दृष्टि डाली है । उन आरोपों के मुख्य तथ्य इसप्रकार है:
1. एक ओर यदि रांगेय राघव के सारे इतिहास पर द्रविड दृष्टि से देखने का आरोप लगाया है तो दूसरी ओर उन पर इतिहास के स्थान पर परंपरा को प्रतिष्ठित करने और पुनरुत्थानवादी होने का दोषारोपण भी किया गया है ।
2. यह भी विवादास्पद है कि आर्यों में दास-प्रथा को छोडकर कभी उस पैमाने पर प्रयुक्त हुई थी, जिस पैमाने पर वह ग्रीस और रोम में प्रयुक्त हुई । किन्तु रांगेय राघव इस बिन्दु पर नवीनतम कृतियों में भी दास-प्रथा का अस्तित्व भारत में मानते रहे । वह भी उस रूप में कि दासप्रथा उत्पादन विधि में पर्याप्त रूप से सहायक थी ।
3. ’प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ का मज़ाक बनाया गया कि वह अव्यवस्थित पुस्तक है यानी वह जल्दबाजी के लेखन का अद्वितीय उदाहरण है ;साहित्य संदेश-जनवरी-फरवरी अंक, 1963, पृ.301द्ध
परन्तु हम गवाह हैं कि रांगेय राघव में इतिहास का मोह नहीं है, लेकिन इतिहास द्वारा स्वीकृत तथ्यों के प्रति कहीं कहीं विरोध है । वे अपने इतिहास परिकल्पना में पूर्वाग्रहों से मुक्त है । किन्तु दौर्भाग्यवश उनकी इतिहास-दृष्टि पर्याप्त विवादास्पद रही है । उन्होंने कहीं भी नस्लवादी दृष्टि से इतिहास को नहीं देखा है । यहाॅं परंपरा को प्रतिष्ठापित करना भी उनका ध्येय नहीं रहा है । अन्य इतिहासकार पुरातत्व और भाषा-विज्ञान को ही निर्णायक तत्व माना है । लेकिन रांगेय राघव ने साहित्य और परंपरा पर अधिक ज़ोर दिया है क्योंकि इससे विभिन्न जातियों के विकास क्रम को अंकित कर सकते हैं ।यहाॅं उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत आदि हमारे प्राचीन ग्रंथों को भी आधार बनाया है । इसे उनकी पुनरुत्थानवादी दृष्टि नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि वे भाववादी और राष्ट्रीयतावादी इतिहासकार नहीं है । उनकी इतिहास दृष्टि ऐतिहासिक यथार्थवादी है । इतिहास के संदर्भ में रांगेय राघव ने दासप्रथा को उत्पादन के क्षेत्र में अधिक सहायक माना है । परन्तु दासप्रथा के संबंध में उनकी दृष्टि अत्यंत संवेदनशील और मानवतावादी रही है ।
रांगेय राघव ने प्रागैतिहासिक काल से लेकर भारत के विभिन्न जातियों के आवागमन, उनके विकास-क्रम, उनकी जातीय-संस्कृति, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था, धर्मिक विश्वास और विभिन्न जातियों की अंतर्भुक्ति को ही रेखंकित किया है । यहाॅं इनके सामाजिक-संस्कृति के विभिन्न अंतर्विरोधों को भी खूब उकसाया गया है । इसलिए ही ’प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ में प्रस्तुत भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास नकारात्मक है ।
संक्षेप में समग्र इतिहास के प्रति वस्तुपरक और वैज्ञानिक रूख अपनाते हुए, यथार्थतावादी दृष्टि से इतिहास का विश्लेषण करना ही उनका ध्येय रहा है । किसी समय का इतिहास एक अर्थ में पूरे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संदंर्भाें का दस्तावेज़ होता है । ’दरअसल, इतिहास की अपनी गति होती है, जिसके आधार पर, किसी देश अथवा काल की स्थितियों का विकास होता है, फिर, यह गति देशकाल और परिस्थिति के कारण निरंतर बदलती रहती है, जिसका प्रामाणिक अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्न इतिहासकार ही कर पाता है’;रामनिहाल गुंजन-नवजागरण और इतिहास चेतना-’पहल’ द्वारा प्रकाशित, पृ.69द्ध । रांगेय राघव ने भारतीय समाज के प्रत्येक पहलु पर युग-सापेक्ष दृष्टि डाली है क्योंकि उन्हें पता है कि विभिन्न युगों में मनुष्य का सत्य बदलते रहते हैं । इसीलिए उन्होंने व्यक्ति को देश-काल और युग-सापेक्ष रखकर देखा है । उनकी इतिहास-दृष्टि राहुल सांकृत्यायन से भी अधिक वस्तुगत और तटस्थ है । राहुल जी ब्राह्मणवाद के पुराने आलोचक हैं। ब्राह्मण साम्राज्यवादियों की भत्र्सना करते वक्त वे पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है । लेकिन रांगेय राघव सर्वत्र तटस्थ रहते हैं । उनका ध्यान सामाजिक शक्तियों और तदनुरूप व्यक्तियों पर रहता है । इसीलिए वे राहुल जी की आलोचना करते हैं । इसी तरह वे रामचन्द्र शुक्ल जी के ब्राह्मणवाद पर भी चोट करते हैं, क्योंकि शुक्ल जी ने कबीर, दादू, नानक अथवा सिद्ध संत परंपरा के साथ न्याय नहीं किया है । रांगेय राघव के अनुसार विदंशी संस्कृतियों को उुपर रखनेवाले उपर्युक्त कवि प्रगतिशील है । तुलसीदास को भी उन्होंने ब्राह्मणवाद का समर्थक मानते हैं । उनके अनुसार तुलसीदास द्वारा ब्राह्मणवाद को फिर से जागृत करने का यत्न प्रतिगामि है । इन बिन्दुओं पर रामविलास शर्मा जी से भी उनका घोर मतभेद रहा है । शर्मा जी ने योग-सिद्ध-संत परंपरा की विद्रोहिणि प्रवृत्ति को तुलसीदास के जनवाद से अधिक महत्व नहीं दिया है । इसप्रकार ह्रासकालीन सामंतकाल में जनवादी आन्दोलनों को कुचलना बिलकुल प्रतिगाामि है ।
इतिहास चिन्तन के क्षेत्र में रांगेय राघव का महत्व असन्दिग्ध रूप से प्रतिष्ठित है । उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भों में जनवादी चेतना पर अधिक ज़ोर दिया है और इतिहास लेखन में हमारी सांस्कृतिक मूलाधारों की खोज की है जो मानवीय चिन्ता से युक्त है ।
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व्रिष्ठ हिन्दी अनुवादक,
एअर इंडिया लिमिटेड,
कोषि़क्कोड एयरपोर्ट ।
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