-डाॅ. टी.पी.शाजू
रांगेय राघव प्रेमचन्दोत्तर युग के मूद्र्वन्य साहित्यकारों में से हैं । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और साहित्य में अज्ञेय, जैनेन्द्र, मोहन राकेश की परंपरा में न आकर राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, भगवतशरण उपाध्याय, अमृतलाल नागर की परंपरा में आनेवाले हैं । वे राहुल सांकृत्यायन के समान पुरातत्ववेत्ता, प्रगतिशील लेखक और व्याख्याकार भी रहे । सर्जक साहित्यकार के अलावा वे उच्चकाटि के शोधकर्ता और इतिहासकार हैं । उनके ग्रंथ अनेक विषयों से संबंधित हैं और उनका क्षेत्र अत्यंत व्यापक हैं । रांगेय राघव ने 21 वर्ष की आयु से लेकर 39 वर्ष की आयु तक के अपने जीवनकाल में हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लेखनी चलाई और अपने नाम की अमिट छाप छोड दी । उनके लगभग 150 मौलिक और अनूदित ग्रंथ इसका प्रमाण हैं । उनकी मेधा एवं विलक्षण चिन्तन-शक्ति गंभीर अध्ययन का परिचायक हैं ।
यद्यपि परंपरा से वे दक्षिण भरतीय हैं, फिर भी जन्म से लेकर मृत्यु तक उत्तर भारत में ही उनका जीवन बीता और वे हिन्दी भाषी साहित्यकारों के बीच में ही सदैव स्थान पाते हैं । यही नहीं कि उनका पूरा जीवन हिन्दी साहित्य केलिए समर्पित भी था । जीवन में समर्पण बोध, लेखन में कर्तृत्व के प्रति आत्मीयता और चिन्तन में प्रगतिशील होना एक साहित्यकार केलिए बडी बात है । अर्थात् उनका व्यक्तिपक्ष और उनकी द्ष्टि का वस्तुपक्ष अलग-अलग ध्रुवों में खडा दीखता नहीं है, दोनों में सातत्य हैं । इसलिए उनकी रचनात्मकता में कहिं-कहिं शिथिलता के होते हुए भी अधिकतर संदंर्भों में उन्होंने गंभीरता का परिचय दिया है ।
रांगेय राघव उस ’दूसरी परंपरा’ के लेखकों में हैं जिन्होंने भरतीय इतिहास, संस्कृति, समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र का सम्यक अध्ययन किया है और उसे अपनी रचनाशीलता का अभिन्न अंग बनाया है । हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन और रांगेय राघव सरीखे रचनाकारों ने अपनी रचनात्कता की दुर्लभ मौलिकता का परिचय ही नहीं दिया बल्कि हिन्दी की पारंपरिक चिन्तनधारा को पूरी तरह से परिवर्तित किया है । रांगेय का साहित्य भी इसी संदर्भ में समझा और आस्वादित होता रहेगा । इसका कारण यह है कि उनका अनुभव इतना विराट, उनकी द्ष्टि इतनी संपन्न और उनकी सूझ-बूझ तीखी और इतनी गहरी है कि उसको अनदेखा करना कठिन है । इसलिए जीवन संबंधी जो परिद्श्य वे खडा करते हैं, वह असामान्य ही रहा है ।
यह विदित बात है कि रांगेय राघव ने साहित्य कि सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है । इसका यह मतलब नहीं कि जितनी उनकी रचनाएॅं हैं, वे सब उत्तम कोटि की हैं । वस्तुतः लेखन-कार्य के इस विस्तार ने उनमें बिखराव ही पैदा किया है । इसके बावजूद इस विस्तृत लेखन-चर्या में एक अभूतपूर्व सत्य निहित है । रांगेय राघव ने अपने जीवन में नौकरी न करने का फैसला किया था । अर्थात् उन्होंने लेखन को अपना मुख्य कर्म मान लिया था । लेखन जब मुख्य कर्म हो जाता है तो अपने को किसी विधा-विशेष में बाॅंधना मुश्किल हो जाता है । यही नहीं तब एक विशेष प्रकार की प्रयोगपरता की इच्छा भी जागृत होती है । यह प्रवृत्ति रांगेय राघव में थी । इस कारण से उन्होंने तरह तरह की रचनाएॅं प्रस्तुत की है । उनकी संख्या भी कम नहीं है । संख्या का वैपुल्य और विषय का वैविध्य रांगेय राघव की रचनात्मकता की अपनी विशेषता है । लेखन की दायरे में ही वे बने रहे । जहाॅं वे अधिक प्रयोगपरक रहे वहाॅं उनमें बिखराव आ गया है । अन्यथा उनकी सृजनात्मकता सुरक्षित ही रही है ।
अपने जीवन में समझौतावादी न होने के कारण और प्रगतिशीलता के सशक्त पक्षधर होने के कारण साहित्य के अलावा उनका एकमात्र कार्यक्षेत्र प्रगतिवादी साहित्य का वह मंच था जहाॅं वे अपनी प्रखरता का परिचय देते रहे हैं । सामयिक सामाजिक सवालों से और स्थितियों से जूझने का कार्य इसलिए उन्होंने किया है । अर्थात् साहित्य के प्रति उनका समर्पणबोध समर्पण सापेक्ष यांत्रिक प्रकिया नहीं है । उसमें उनकी मानवीय दृष्टि, प्रगतिगाामी चिन्तन, स्वातंत्र्येच्छा और निम्नवर्गीय तबके के प्रति प्रेम और प्रखर राजनीतिक झुकाव आदि है । अतः रागेय राघव ने सुविधाभोगी लेखकों की परंपरा नहीं बल्कि समर्पित प्रखर विचारवाले रचनाकारों की परंपरा चलाई है । असुविधाओं के बीच में रहना और जीवन की विभिन्न स्थितियों पर लिखना तथा अपनी तीव्र प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करना खतरे से खाली नहीं है । इसमें उनके लेखक और चिन्तक के विकास के प्रकरण स्वतः मिल जाते हैं ।
हिन्दी कथा साहित्य में रांगेय राघव का नाम विशेष स्मरणीय है । ’गदल’ जैसी कहानियों के रचयिता के रूप में, ’कब तक पुकारूॅं’ जैसे उपन्यासों के लेखक के रूप में वे सदैव याद किए जाएॅंगे । कथा साहित्य के अंतर्गत ऐतिहासिक उपन्यास की शाखा को रांगेय राघव ने विशेष रूप से विकसित किया है । रांगेय राघव ने जिसप्रकार के ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं, ऐसे उपन्यास हिन्दी में ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में भी कम लिखे गये हैं । इसलिए उस क्षेत्र में उनका मौलिक योगदान है । रांगेय राघव के ऐतिहासिक उपन्यासों का इतिहास संदंर्भ भी मुख्य है और उनका सामाजिक संदर्भ भी । इतिहास का यह नया प्रयोग उनकी लेखनी की मौलिकता का प्रमाण है । वस्तुतः वे इतिहास की खोह में से एक समाज को पुनःसृजित कर रहे हैं । हमारी परंपरा के मूल तक वे जा रहे हैं और इस प्रकार के हमारी संस्कृति को परिभाषित कर रहे हैं ।
जाति प्रथा, धार्मिक स्थितियाॅं आदि रांगेय राघव के इच्छित क्षेत्र हैं । भारत के इतिहास के अध्येता केलिए इनका उपयोग करना पडता है क्योंकि वे सिर्फ राजनीतिक गतिविधियों के लेखक या संकलनकर्ता नहीं है । वे समाजशास्त्र के संदेशक भी है । उन्हें यह तथ्य ढूॅंढ निकालना पडता है कि विशेष राजनीतिक परिस्थितियों के बीच कौन-सा सामाजिक स्वत्व विकसित हुआ था और उसकी आर्थिक स्थिति कैसी थी तथा उन आर्थिक स्थितियों ने समाज को कहाॅं तक प्रभावित किया था । इसप्रकार भारत के सामाजिक जीवन के स्वत्व की पहचान करने का कार्य ही उन्होंने किया है । उसमें दर्शित उच्च-नीचत्व हो, जाति-प्रथा या दास-प्रथा द्वारा निर्मित द्वन्द्वात्मक स्थिति हो, उसमें वे इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं ।
भारतीय संस्कृति की खोज को वस्तुतः रांगेय राघव के उपन्यासों के प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया गया है । इस प्रकरण में यह प्रश्न उठता है कि भारतीयता की पहचान कैसे संभव है, जब भारत का भौगोलिक संदंर्भ स्पष्ट रूप में विन्यसित नहीं है । जैसे कि भारत का आधुनिक भौगोलिक जिसप्रकार एक राजनीतिक परिणति है, इसीप्रकार उसका प्राचीन संदंर्भ उसकी सांस्कृतिक परिणति है । अलग अलग खंड राज्यों में उसका विभाजित रहना राजनीतिक कारणों का प्रतिफलन है । पर भारतीय कहने योग्य कुछ सांस्कृतिक धाराएॅं उस समय भी पहचानती जा सकती हैं । सांस्कृतिक परिपाश्र्व के अंतर्गत सामाजिक जीवन की गतिविधियों और उसको पुष्ट करनेवाली कुछ भावनात्मक परिणतियों का समन्वय रहता है । भारतीय जीवन ने शतियों से अर्जित जीवन-दृष्टि को अपनायी थी जो अन्य संस्कृतियों से अलग है । रांगेय राघव ने अपनी रचनाओं में उपर्युक्त सांस्कृतिक पक्ष को उभारा है ।
संक्षेप में रांगेय राघव हिन्दी साहित्य के उन इने-गिने रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी एक परंपरा चलाई हैं । प्रत्येक रचनाकार की सार्थकता इस बात में है कि वह अपनी परंपरा चला सके । अपने में अंकुरित तथा अपने में विकसित स्वत्व का आभास ऐसे रचनाकार सदैव देते रहे हैं । रांगेय राघव ने भी अपनी विपुल सर्जनात्कता के माध्यम से ऐसा ही आभास दिया है ।
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व्रिष्ठ हिन्दी अनुवादक,
डा० टी० पी० शाजू
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