हर बार वसंत आती है.....
खोने केलिए !
राग-रंगों से
सजधज कर
देह-गंध और
मिट्ठी की सोंध से
मोहित और कंपित.....
स्वप्निल मधु वसंत !
ंअब भी प्यार है.......
मुझे रंगीन धूसरों से
मगर डर है सच......
हर बार वसंत आती है.....
खोने केलिए !
डा० टी० पी० शाजू
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