अब कैसी आशा समर विजय की
बंद होने लगी जब भाषा उर की
अब कैसी आशा समर विजय की
यह लोक न शोक हरेगा तुम्हारा
अब तो लाग–लगा,उससे मन की
जो मौन गगन को भेदकर
नीरव गिरि से नि:सृत होकर
निर्झर बन धरा पर आता
तप्त धरती की दग्ध साँस से
आह न निकले,कर उस पर मधु-
रस की वर्षा छाया- दल में जाकर
तरु-लताओं संग लिपटा,सोया रहता
सिकता समीर सलिल सदा
एक स्नेहपाश में बंधा रहे
जग में कंकाल जाल फ़ैलाता
फ़िर पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
भरकर प्राणों को मुखरित करता
जलाशयों में जाकर कमल दल को
लघु लहरों के चल पलनों पर झुलाता
फ़िर जड़ को पंक से छुड़ाकर
दूर कहीं बहा ले चला जाता
जिसके लिए रत्न- विभूषित अम्बर
किरणों का स्वर्णिम चादर बुनता
सरिता कलरव करती, कुसुम हँसता
जिस पथ से आती उद्गम की हिल्लोर
लगा लाग मन की,वही तो है चितचोर
जिसके लिए गिरि-गिरि से उठकर तरुवर
नीरव नभ की ओर, टकटकी लगाये जीता
तरुवासी कोकिल पंचम स्वर में गाता
कुसुम क्यारी में जाकर,तमाल सोया रहता
बाँध उस तट से अपनी जीवन की नौका
क्योंकि छानेवाली है,भावी में घनघोर घटा
ऐसे भी झंझा प्रवाह से निकला यह जीवन
इसमें नहीं सम्मिलित,चैन का एक भी कण
रहता केवल अनिल, अनल , क्षितिज
नीर और विक्षुब्ध समीर भरा, जो
हर पल मनुज को भयभीत बनाये रखता
ओस कण में दिखलाकर, रजनी का क्रंदन
छायामय सुषमा में दिखलाकर विह्वलता
कैसे घूम रही नियति की प्रेरणा,डराये रखता
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