अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
वर्षों बीत गए उस अग्नि प्रलय को
जिसने जला-जलाकर भस्मसात कर दिया था
मेरे कुसमित हृदय के अर्द्धस्फुटित कलियों को
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
फिर भी यथावत है हृदय का वह भू-भाग
जहाँ कभी हुआ था भीषण अग्नि-दाह और
आत्म प्रताड़ित होकर किया था मैंने आत्म-दाह
अपने अधिकारों की मदिरा के रक्तिम नयन से
मेरे तन की बाँह पकड़कर, उसने दिया था उडेल
मेरे फूलों से अंगों पर, निखिल जगत की कतुटा
जिसकी शीतल छाया में, चेतना बनने आई थी निर्मल
वहाँ प्राण आलोकित तो हो न सका, नयन रहा सजल
मुक्ता घट में स्वर्ण प्रीति की, कर में सुरा लिए मैं खड़ी रही
मालूम नहीं कब उनके निर्मम पदघातों से वह टूट गया
अनेकों खंडित चिन्ह लिए आज भी खड़ा है
मेरा यह जर्जर खंडहर दैन्य शरीर
दीखतीं जिसमें मेरी जिंदगी का जीवन-शास्त्र
और निष्ठुर जगती के आधघातों की लहरी
विश्व सभ्यता का दुहाई देनेवाला ऐसा मनुज
आत्मज्ञानी, तो हो सकता मगर रखता
इसे अपने ही हृदय-मन के लिए सीमित
इसके मन-दीपक तो होते हैं, पर होते हैं शिखारहित
कभी पारिजात मंदार की लताओं की तरह
सुंदरता मेरे अंग-अंग से लिपटी रहती थी
ज्वलित प्रवालें के पर्वत पर भी, हिम कुसुम बनकर
रक्त -सिक्त नीलकमल-सा खिली रहती थी
जमाने के निर्मम पदघातों से कब मुरझ गई
कुंचित अपरो की रस माघुर्यता कब लुप्त हो गई
भाग गया कब सौम्यकांत मुखवाला वह विहग
जो मेरे निर्जन ठूँठ को गुंजरित करता था
अपने अश्रुकण को जीवित पुष्पों में संचित कर
कितने-कितने हार बनाए, याद नहीं मुझको
प्राणों का यह पावक पक्षी, जमाने के पदचापों
से कंपित होकर, द्विविधा के क्षितिज में जाकर
कितने दूर तक उड़ान भरे, ज्ञान नहीं मुझको
पर इतना था अभिलाष, कि व्यथा-क्लांत उर के भीतर
मन के अंधियारे में भी, जलता रहे आदर्शों का प्रकाश
काल सर्प-सा तम, भू पर मेरे जीवन को लुंठित देखकर
शुभ्र सुनहली ग्रीवा मोड़े, एक दिन श्रद्धा आई मेरे पास
मेरे इन्द्रियों के खुले दरवाजे से प्रवेश कर, अपने भावों के
पगों से गुंजित कर, मेरे हृदय नभ-आकाश को आत्मसात कर
बतलाई, कैसे जीवन नदिया में स्वर्णिम स्रोतों का हो विकास
जिससे वह बह सके, कल-कलकर वेग गति से लोट, लिपट
भू रज को कुसुमित कर, हरित कर सके अपना हृदय आकाश
वह दिव्य अतिथि एक दिन, मनुज देह
धरकर पुत्र रूप में आया मेरे पास
मेरी नभो-नीलिमा विस्तृत हो गई
मुख स्वर से होने लगा उसके संग मौनालाप
उसे देखकर लगा, चाँद-सूरज उसके ही लोचन हैं
मेरे हृदय का स्पंदन भी उसी के श्वासों से है
प्रकट नहीं कर सकती मैं, शब्दों में वह पुष्कल उल्लास
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